Book Title: Chandralekhavijayprakaranam
Author(s): Devchandramuni, Pradyumnasuri
Publisher: Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre
View full book text ________________
चन्द्रलेखाविजयप्रकरणम्
[द्वितीयोऽङ्कः देविप्रभा- (चैतन्यमवाप्य)
३६हा सव्वसुंदर हहा तयलोयदीव हा लच्छिवासहर हा नयणिकचंद । हा पुत्त मज्झ सुहपायवमूलकंद
चत्तूण इत्थ गहणे कह तं गदो सि ॥ ३७ ।। (वसन्ततिलका) ३जं दूरट्ठिदवल्लहेण जणिदं जं तायमाएहि मं चत्ता अंकुरिदं थिरेहिं हवियप्पाणेहिं जं वड्ढिदं । जं तुज्झाणणदंसणेण णिहदं दुव्वारदुक्खं जवा तं एवं सयलं वि तुज्झ गमणे भूओ वि उम्मीलिदं ।। ३८ ॥ (शार्दूल.)
(ऊर्द्धवमवलोक्य व्रतरक्षितादर्शनाद् द्विगुणदुःखानुभवने साक्रन्दम्) भयवदि ! ३८सो पियविरहो सो चाओ अइसिणिद्धजणणीजणयस्स । विहडणं मज्झ सुयस्सवि दारइ कयवं व मे हिययं ।। ३९ ।।
- (आय) ३जो अमयवुट्ठिसरिसो पुत्तो गुरुदुक्खदावदड्ढाए। सो मज्झ अज विहुर कड्ढइ जीयं कयंतो व्व ।। ४० ।।
(आया) व्रतरक्षिता- (स्वगतम्) कथमद्यापि चिरयति ज्ञानबोधः । (प्रकाशम्) वत्से !
३६. हा सर्वसुन्दर ! हहा त्रैलोक्यदीप !
हा लक्ष्मीवासगृह हा नयनकचन्द्र ! । हा पुत्र मम सुखपादपमूलकन्द
त्यक्त्वा इह गहने कथं त्वं गतोऽसि ॥ ३७. यद् दूरस्थितवल्लभेन जनितं यद् तातमातृभ्यां मां
त्यक्त्वा अङ्कुरितं स्थिरैः भूत्वा प्राणैः यद् वर्तितम् । यत् तवाननदर्शनेन निहतं दुर्वारदुःखं जवात्
तद् एतत् सकलमपि तव गमने भूयोऽपि उन्मीलितम् ॥ ३८. स प्रियविरहः स त्यागः अतिस्निग्धजननीजनकस्य ।
विघटनं मम सुतस्यापि दारयति क्रकचमिव मे हृदयम् ॥ ३९. योऽमृतवृष्टिसदृशः पुत्रः गुरुदुःखदावदग्धायाः ।
स मम अध विधुरं कृषति जीवितं कृतान्त इव ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org,
Loading... Page Navigation 1 ... 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156