Book Title: Chaityavandan Sangraha Tirth Jin vishesh
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Abhinav Shrut Prakashan

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Page 7
________________ तीर्थ-जिन विशेष [३] देखे दरिसण कोइ जास, मानव इणलोके, बीजे भवे जे मुक्ति योग्य, नर तेह विलोके...२... स्वर्णगुफा पश्चिम दिशे ओ, छे जास अहिठाण, दान सुहंकर विमलगीरि, ते प्रणमुं हित आण...३... सगरादिक नरपति अनेक, इणे पर्वत आव्या, विविध विचित्र विराजमान, प्रासाद कराव्या...१... भक्ति धरी जिनवर तणी, बहु प्रतिमा थापी, तिणे महीयलमा तेहनी, कीरति अति व्यापी...२... सुरपति नरपतिना थया अ, इहां बहु उद्धार, ते शQजय सेवीयो, दान सकल सुखकार...३... अह गीरि उपर आदिदेव, प्रभु प्रतिमा वंदो, रायण हेठे पादुका, पूजी आणंदो... अह गीरिनो महिमा अनंत, कुण करे वखाण, चैत्री पुनमने दिने, तेह अधिको जाण...२... अह तोरथ सेवो सदा ओ, आणी भक्ति उदार, शत्रुजय सुखदायको, दानविजय जयकार...३... चैत्रो पुनमने दिने, शत्रुजय भेटे, भक्ति धरे जे भव्य लोक, ते भव दुःख मेटे. आदीश्वर जिननी अमूल, पूजा विरचावे, . इति भीति सघली टले, सुख संपद पावे...२.. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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