Book Title: Bhuvaneshvari Mahastotram
Author(s): Jinvijay, Gopalnarayan Bahura
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
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... शब्दब्रह्म से सर्वप्रथम वैदिकविज्ञान की सृष्टि हुई ।' सरस्वती ही वेदों की जननी
है। उसी में सब भुवन निवास करते हैं। अच्युत ने सरस्वती और वेदों को अपने मन से उत्पन्न किया। गायत्री ही वेदमाता कही जाती है। वाक् वेदों और समस्त शब्दजाल की जननी है इसीलिए वह वेदात्मिका कहलाती है। शब्दप्रभव (शब्दब्रह्म से प्रादुर्भूत ) होने के कारण यह विश्व भी वाड्मय है।
... वाक् जिस पर प्रसन्न होती है वह महान हो जाता है, ब्राह्मण हो जाता है, ऋषि बन जाता है।
वाक् ऋषियों में प्रविष्ट हो कर मनुष्यों में प्रकट हुई। यज्ञ के द्वारा मनुष्यों ने ऋषियों में प्रविष्ट वाक् के दर्शन किये। ऋषियों ने अपनी ऋचाओं को वाक् भी कहा है क्योंकि वे वाक् से प्रकट हुई हैं। वाक् से ब्रह्म का ज्ञान होता है, वाक् ही परब्रह्म है। वेदों की माता सरस्वती परब्रह्म में निवास करती हैं। इस प्रकार यह महाशक्ति और महेश्वर एक ही हैं। वेद महेश्वर के निःश्वसित हैं। वेदों से ही उसने अखिल जगत् का निर्माण किया है। वाक् अक्षर (नष्ट न होने वाली) है। ऋत ले सर्वप्रथम उसकी उत्पत्ति हुई है और वह अमृत का केन्द्रविन्दु है। वाक् से प्रजापति ने समस्त प्रजाओं को उत्पन्न किया है।
वाक् समुद्र है, मोद की जननी है, क्षयरहित है। लौकिक अर्थ में न वाक् का क्षय होता है न समुद्र का।"
. शतपथ ब्रा० ६०१1१1८ २. महाभारत शान्तिपर्व ११२।१२० - तैत्तिरीय ब्राह्मण २०८५ ३. भीष्म पर्व ३०१६ वां पद्य ।। ४. ऋग्वेद १०।१२२५, १०९७११८
ऋषि शब्द का अर्थ प्राण भी है । प्राणा वा ऋषयः । ते यत् पुरा अस्मात् सर्वस्मादिदमिच्छन्तःश्रमेण तपसारिपस्तस्माद् ऋषयः । श० ब्रा० ऋषीत्येष गतौ धातुःश्र तौ सत्ये तपस्यथ ।
एतत् संनियतस्तस्माद् ब्रह्मणा स ऋपिःस्मृतः । वायु० पु० ५६ अध्याये ८० श्लो. ५. वाचैव सम्राड् ब्रह्मा ज्ञायते वाग नै परमं ब्रह्म । बृ. पार. उपनिषत
६. वेदानां मातरं मत्स्थां पश्य देवी सरस्वतीम् । महा भा० शा० पर्व । . ७. यस्य निःश्वसितं वेदा यो वेदेभ्योऽखिलं जगत् ।
निर्ममे तमहं वन्दे विद्यातीर्थम् महेश्वरम् । ऋक्संहिता, सायणभाष्य । ८. वागक्षरं प्रथमजा ऋतस्य वेदानां माता अमृतस्य नाभिः । ते० प्रा० ३।३६।१। ___ • ६. वाग वै अजो वाचो वै प्रजा विश्वकर्मा जजान । शत० ब्रा० ७ ।२१ । - १०. वाग वै समुद्रो । ऋक् ४५।१
. न वाक्क्षीयते न समुद्रः क्षीयते । ऐतरेय० ५।१६ ।