Book Title: Bhuvaneshvari Mahastotram
Author(s): Jinvijay, Gopalnarayan Bahura
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
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( ५ )
मूलशक्ति एक भावापन्न होकर रहते हैं । किन्तु, परिणामस्वरूपा शक्ति भिन्न भिन्न स्तरों में प्रसृत होती है । उस का प्रसार और संकोच ही सृजन और संहार है । यह, प्रसार और संकोच इस सृष्टि का अनपायी धर्म है ।
शब्दब्रह्म का उद्भव शक्तिसमन्वित शिव के उल्लासरूप में होता है और जलाशय में प्रस्तर निक्षेप के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुई गोलाकार लहरों के समान उसका प्रसार एवं लय होता है । इसी ब्रह्म से वाक् का प्रादुर्भाव होता है। श्रुति भगवती कहती है कि " प्रजापतिर्वै इदमासीत्" आदि में ब्रह्म ही था । " तस्य वागू द्वितीया श्रासीत्" वाक् उसकी द्वितीया थी । अर्थात् वह पहले उसमें एकभावापन्न थी और फिर शक्तिरूप में उसी से प्रादुभूत हुई । “वाग् वै परमं ब्रह्म" वाक् ही परसब्रह्म है । इस प्रकार वाक् ब्रह्म की शक्ति है जिसका उसके साथ ऐक्यभाव है । इस शक्ति के द्वारा ही ब्रह्म जगत् का स्थूल कारण बनता है । परन्तु यह नहीं भूलना चाहिए कि सूलशक्ति तो ब्रह्म के साथ अथवा ब्रह्म में एकभाव से विद्यमान रहती है । उसका मूर्ति ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र में भी पृथक् स्वरूप नहीं है । वह इस त्रिमूर्ति की जनती है । '
श्रादिपुरुष की इच्छा हुई कि मैं अकेला हूं, अनेक हो जाऊं, मैं सृजन करू । तब उसने श्रम किया, तप किया और सर्वप्रथम उससे उसी की बाकू ( यह वाणी ) उत्पन्न हुईं ' । वाक् का प्रादुर्भाव होने पर उसके साथ उस आदिपुरुष का मानस संयोग हुआ और वह उससे सगर्भा हुई । कठोपनिषत् में भी इसी प्रकरण को इसी प्रकार कहा है । ताराज्य - महाब्राह्मण में लिखा है कि बाकू ने प्रजापति से गर्भ धारण किया । वह उससे पृथक् हुई और उसने प्रजाओं को उत्पन्न किया । वह पुनः प्रजापति में ही प्रविष्ट हो गई । "
१. क. शब्दानां जननी त्वमत्र भुवने वाग्वादिनीत्युच्य से
त्वत्तः केशववासवप्रभृतयोऽप्याविर्भवन्ति स्फुटम् ।
लीयन्ते खलु यत्र कल्पविरतौ ब्रह्मादयस्तेऽप्यमी
सा त्वं काचिदचिन्त्यरूपमहिमा शक्तिः परा गीयसे || त्रि० भा० ल० स्तवः १५ ॥ ख. सगुण ब्रह्म का नाम ही काम है, जिसकी त्रिगुणात्मिका शक्ति से त्रिदेव का श्राविर्भाव होता है । क + अ + म = काम | क= ब्रह्मा, श्र= विष्णु, म=महादेव ।
ग. सृष्टिस्थित्यन्तकरिणीं ब्रह्मविष्णुशिवात्मिकाम् ।
स संज्ञां याति भगवानेक एव जनार्दनः || वि० पु० १|२|६६ ॥
२. क. पंचविंश ब्राह्मण | २०|१४|२ |
ख. सोऽश्राम्यत । सोऽतप्यत । वागेवास्य सासृज्यत । सा गर्मी अभवत् । प्रजापति इदमासीत् । तस्य वाक् द्वितीयासीत् । तया स मिथुनमभवत् । सा गर्भमधत्त । सा अस्मादपाक्रामत् । सा इमाः प्रजा सृजत । सा प्रजापतिमेव पुनः प्राविशत् । ताराढ्य ब्रा० २०|१४|२ |