Book Title: Bhuvaneshvari Mahastotram
Author(s): Jinvijay, Gopalnarayan Bahura
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur

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Page 12
________________ (2) है । आकाश की शब्दगुणकसंज्ञा इसी कारण है । परा, पश्यन्ती और मध्यमा ये नित्या और अतीन्द्रिया वाक् हैं । वैखरी इन्द्रियग्राह्या और श्रनित्या है । ' परमशान्त ब्रह्म ( परमात्मा अथवा परमशिव ) में न शब्द है, न अर्थ है और न प्रत्यय है । अर्थात् वह अशब्द, निर्विषय और निष्प्रत्यय है, अवनगोचर है । उस में नाम रूप भी नहीं हैं । यह पारमार्थिकी सत्ता आत्यन्तिक साम्यस्वरूप है । उसी परमशान्त परब्रह्म में क्रमानुसार विश्वप्रादुर्भाव के लिए साम्यावस्था का भङ्ग हो करविन्दुरूपा घनीभूत शक्ति का उद्धव होता है और वही विभिन्न रूपों में प्रसार करती है ।" यही शक्ति जगत् में द्वैतानुभव का कारण बनती है । शक्ति का यह विलास चिदाकाश में घटित होता है । परन्तु इससे परम शिव परमात्मा में कोई विकार उत्पन्न नहीं होता । वह साक्षी रूप में स्थित रहता है ।" उसमें कोई परिणाम उपस्थित नहीं होता क्योंकि वह तो निरपेक्ष द्रष्टामात्र है । केन्द्रस्थ साक्षी एवं १. स्थानेषु विवृते वायौ कृतवर्णपरिग्रहा । वैखरी वाक् प्रयोक्तणां प्रावृत्तिनिबन्धना । केवलं बुद्ध्युपादानक्रमरूपानुपातिनी । प्राणवृत्तिमतिक्रम्य मध्यमा चाकू प्रवर्तते ॥ विभागास्तु पश्यन्ती सर्वतः संहृतक्रमा | स्वरूपज्योतिरेवान्तः सूच्या सा चानपायिनी ॥ सर - कष्ठा० रत्नदर्पणाख्यव्याख्यायाम् । २. क. सच्चिदानन्दविभवात् सकलात् परमेश्वरात् । प्रासीच्छक्तित्ततो नादो नादाद् बिन्दुसमुद्भवः || शा० ति० ११७ ॥ ख. "John Woodroffe" ने अपनी 'The Garland of Letters' नामक पुस्तक के पृ० १२२ पर एक अज्ञातकर्तृ के तान्त्रिक ग्रन्थ का उद्धरण दिया है । यह ग्रन्थ ‘French Protestants of the Desert ' ने 'Le Îlystere de la croix' नाम से १८वीं शताब्दी में प्रकाशित किया गया था । इसके 8 वें पृष्ठ पर लिखा है "Ante Omnia Punctum exstitit; non to atomon, aut Mathematicum sed diffusivum. Monas eart explicite; inplicite Myrias. Lux erat, erant et Tenebrae Principrium et Finis Principii. Omnia et nihil; Est et non . ' "सब वस्तुओं ( सृष्टि ) से पूर्व एक बिन्दु ( Punctam ) था जो अणु अथवा Mathematical ( गणितीय कल्पित ) बिन्दु से भी सूक्ष्म था । विस्तार अथवा माप न होने पर भी उसकी स्थिति अवश्य थी । उस एक में अनेक (Myrias ) की स्थिति थी । उसमें प्रकाश था, श्रन्धकार था, श्रादि था, अन्त था, सत् था, असत् था, सब कुछ था, कुछ नहीं था ।" ३. द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिपप्वजाते । तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वृत्ति श्रनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ।। मुण्डकोप० ३।१ ॥

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