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११.
स वेपमानं सरसीजले विधं विलोक्य कान्तास्त्वितिवादिनीर्मुहुः । शशाङ्क ! राजासि बिभेषि मा प्रभो - बलात् प्रभुर्नः सकृपो व्यलोकत ॥
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भरतबाहुबलि महाकाव्यम्
तालाब के जल में चन्द्रमा को कम्पित देखकर स्त्रियां बार-बार यह कह रही थीं'चन्द्र ! तुम राजा हो । हमारे स्वामी बाहुबली के बल को देखकर तुम मत डरो । हमारे स्वामी दयालु हैं, वे बिना अपराध किसी को कष्ट नहीं देते।' दूत ने यह सब देखा ।
१२. क्वचिन् मृगोयूथमयद् यदृच्छया, स वीक्ष्य विस्फाररवेप्यसंभ्रमम् ।
गते' कर्णान्तिकमित्यतर्कयत्, कृपार्षभीणां विषयेषु' शाश्वती ॥
दूत ने क्वचित् हरिणियों के समूह को स्वेच्छा से घूमते हुए देखकर सोचा - ये कितनी निर्भयता से घूम रही हैं । धनुष के टंकार को इतने समीप से सुनकर भी ये भयभीत नहीं हो रही हैं, इनकी गति में वेग नहीं आ रहा है। उसने यह तर्क किया कि ऋषभ के पुत्रों के देश में दया शाश्वतरूप से स्थित है ।
१३.
दिकस्वराम्भोजमुखी परिस्फुरद् विसारनेत्रा दयितेव तस्य च । रथाङ्गनामस्तनराजिनी चलत् - तरङ्गनाभिः सरसी मुदेऽभवत् ॥
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एक तलाई ने दूत को कान्ता की भांति प्रमुदित किया। विकसित कमल उसका मुख था। चलती हुई मछलियाँ उसके नेत्र थे । चक्रवाक उसके स्तन और उछलती हुई तरंगें उसकी नाभि थी ।
१४. श्रमच्छिदे तस्य विरुद्धपुष्पव - ल्लताप्रसक्तैः श्रितसारिणीजलैः । अभूताऽवेगचरैः समीरणः क्रमं न लुंपन्ति हि सत्तमाः क्वचित् ॥
व्यभिचार के कारण पुष्पवती लताओं से प्रसक्त और सारिणी के जल का स्पर्श करने वाला पवन दूत के पथगत श्रम को दूर करने के लिए मन्द मन्द गति से चलने लगा। क्योंकि श्रेष्ठ पुरुष अपने क्रम - परंपरा का कहीं भी लोप नहीं करते ।
१. अत्रापेः पुनरादानं अतीवसमीपख्यापनार्थम् – पञ्जिका पत्र २ ।
२. विषय : - देश ( विषयस्तूपवर्तनम् - अभि० ४।१३ )
३. विसार का अर्थ है--मछली ( विसारः शकली शल्की अभि० ४।४१० )
- परिस्फुरद्विसारनेत्रा — चलन्मीननयना । - अभि० ४।३६६ )
यह 'समीरणः ' का विशेषण है । १ - विरुद्धा प्रसक्तैः – प्रसंगवद्भिः
४. रथाङ्गनाम — चक्रवाक (चक्रवाको रथाङ्गाह्वः ५. विरुद्धपुष्पवल्लताप्रसक्तैः – इसके दो अर्थ हैं। व्यभिचारादिना, पुष्पवती - रजस्वला, एतादृशी लता, तत्र २ - विरुद्धा - विभिः पक्षिभिः रुद्धा व्याप्ता, पुष्पवत् — कुसुमवत्
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