Book Title: Bhagavati Sutra ke Thokdo ka Dwitiya Bhag
Author(s): Ghevarchand Banthiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner

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Page 63
________________ ५५ s आत्मा निरन्तर दूरूपपने दुवर्णादि १७ बोल मलीनपने बारम्बार परिणमता है ? हाँ, गौतम ! बंधता है यावत् परिण मता है। अहो भगवान् ! इसका क्या कारण ? हे गौतम! जैसे नये कपड़े को हमेशा पहनने से, काम में लेते रहने से वह वस्त्र मैला मलीन हो जाता है। इसी तरह आरम्भादि १८ पापों से प्रवृत्ति में करता हुआ जीव कर्मों के मैल से मलीन होता है । २- अहो भगवान् ! क्या काल्पकर्मी, थप क्रियावन्त, अल्प आवी, अल्प वेदनावन्त जीव के कर्म सदा आत्मा से अलग होते हैं ? छेदाते भेदाते क्षय होते हैं ? हाँ, गौतम ! होते * १७ बोल इस प्रकार हैं दूरूवत्ताए, दुवण्णत्ताए, दुगंधत्ताए, दूरसत्ताए, दुफासत्ताए, अणिर्द्वत्ताए, अकंत, अप्पिय, असुभ, अमरगुरण, अमणामत्ताए, अणिच्छियत्ताए, अभिज्भिग्रत्ताए, अत्ताएं, गो उत्ताएं दुक्खत्ताए, गो सुहताएं, भुज्जो भुज्जो परिणमंति. 1 अर्थ - १ दूरूपपने ( खराब रूपपने), दुर्वर्णपने ( खराब वर्ण पने), ३ दुर्गन्धपने, ४ दुरसपने, ५ दुःस्पर्शपने, ६ अनिष्टपने, ७ अकान्तपने (असुन्दरपने ), ८ अप्रियपने, ६ अशुभपते ( अमंगलपने ), १० मनोज्ञपने ( जो मन को सुन्दर न लगे ); ११ अमनामपने ( मन में स्मरण करने मात्र से ही जिस पर अरुचि पैदा हो ), १२ अनिच्छित पने (अनभीप्सितपने- जिसको प्राप्त करने की इच्छा ही न हो ), १३ भियितपने ( जिसको प्राप्त करने का लोभ भी न हो ), १४ अहत्ताए ( जघन्यपने:भारीपने ), १५ णो उद्धृत्ताप - ऊर्ध्वपने नहीं ( लघुपने नहीं), १६ दुक्खत्ताप-दुःखपने, १७ गो सुहत्ताप - सुखपने नहीं

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