Book Title: Atula Tula
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 213
________________ भक्तिविनिमयः १६१ लघुत्वं पादाब्जे प्रयुतमथ लब्धा सुगुरुता, नियोगोप्याराधि प्रथितसुनियोगिप्रणिनुतः । सदा सेवाऽसाधि प्रचुरमतिनैवं प्रतिपल मिदं भक्तेस्तत्त्वं भवति भगवन् ! वा क्रयविधिः ?॥४॥ आपने अपनी लघुता गुरु के चरण-कमलों में समर्पित की और बदले में गुरुता पा ली। आपने आदेश की आराधना की और आज बड़े-बड़े आदेश देने वालों के द्वारा संस्तुत हैं। आप प्रचुरमति वाले हैं। आपने इस प्रकार सदा सेवा की है। भगवन् ! यह भक्ति है या विनिमय ? यथा तत्स्थानस्याप्रतिममहिमानं प्रकुरुते, तथा स्वस्यौन्नत्यं रचयति विरञ्चे रविषयः । उपायो रम्योऽयं । करतलगतस्ते मुनिपते!, गुरोर्भक्तेस्तत्त्वं भवति भगवन् ! वा क्रयविधिः ? ।।५।। जैसे आप अपने गुरु के स्थान की अप्रतिम महिमा बढ़ाते हैं वैसे ही आप अपनी उन्नति इस प्रकार कर लेते हैं कि विधाता भी उसे नहीं जान पाता। मुनिपते ! आपको यह अच्छा उपाय हाथ लगा। भगवन् ! यह गुरु-भक्ति है या विनिमय? यशोगाथां कालोः कलयति च काव्ये परिषदि, यशोगाथागानं भवति भवतस्तावदतुलम् । महत्त्वं काव्यस्थं वचनगतमाविर्भवति च, गुरोर्भक्तेस्तत्त्वं भवति भगवन् ! वा क्रयविधिः ? ॥६॥ आप परिषद् में श्रीमत् कालूगणि का यशोगान करते हैं। वह आपका अतुल यशोगान बन जाता है। कविता में सन्निहित महत्त्व वचन में आकर अभिव्यक्त होता है । भगवन् ! यह गुरु-भक्ति है या विनिमय ? करिष्यत्यानन्दोद्भवम खिलसंघस्य सुतरां, हरिष्यत्याभां तामपि तदनुगोऽशोकतरुजाम् । भविष्यत्युद्वेलो गण जलधि रात्मा हि भवतो, गुरोभक्तेस्तत्त्वं विहितमिह तद् यच्च भवता ॥७॥ . आप सम्पूर्ण संघ में आनन्द की सृष्टि करेंगे और अपने गुरु का अनुसरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242