Book Title: Atula Tula
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 228
________________ २०६ अतुला तुला मान्, आकाशास्तिकाय के रूप में आश्रययुक्त बना रहे हैं । वे काल के रूप में संघ को संचालित और पुद्गल के रूप में विभिन्न प्रवृत्तियों से व्यापृत कर रहे हैं। वे चैतन्य के रूप में अनुभूति दे रहे हैं । इस प्रकार उनका कृति - कौशल उन्हें विजयी बना रहा है । छायायां विस्तृतायां S कीर्तेर्लोकेऽखिले शनैश्चरोऽभवच्छायासुतो ज्ञातुं स्वमातरम् ||४|| देव ! सम्पूर्ण विश्व में आपकी कीर्ति की छाया इतनी विस्तृत हो गई कि छाया का पुत्र ( शनिश्चर) भी अपनी मां छाया को पहचानने के लिए धीरे-धीरे चलने लगा -- - शनैश्चर हो गया । रतिः प्रिया मेsस्य महामतेरपि पञ्चाशुगाः पञ्चयमाश्च पत्रिणः । पौष्पं धनुः शान्तिधनुर्मू दुव्रतं, भीरुर्जरायाश्च विभेत्य सावपि ॥ ५॥ Jain Education International त्वत्, विभो ! | स्यां शंवराङ्कोपि च संवरध्वजः, स्यां शंवरद्वेष्यपि संवराहितः । महोत्सवोप्ययं, महोत्सवोऽहं च विश्वं विजेतुं च समुत्सुकावुभौ ॥ ६ ॥ साम्येक्षणादित्थमयं सहायको ममेति बुद्धया न मया ह्य् पद्भुतम् । अथाधुना लब्धसमग्रविक्रमो वशंवदः स्यादिति मे न दृश्यते ||७|| समूलमुन्मूलयितुं च विधोयते प्रत्युत हाह ! योहं न शक्रादिभिरेव स विप्रलब्धोस्मि 3 चेष्टनं, मामपि । वञ्चितः । महात्मनाऽमुना ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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