Book Title: Atula Tula
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 234
________________ २१२ अतुला तुला उज्ज्वलता से निष्पन्न शुक्लध्यान के बल से केवलज्ञानरूपी लक्ष्मी से ललित और निष्पन्न परम उज्ज्वल पद को प्राप्त करूं, जिसके द्वारा तुम सदा आनन्द को प्राप्त करते हो। भगवन् ! तुम्हारा स्थान अद्भुत है। वहां जन्म, जरा, मरण, द्वन्द्व, शोक और आवरण नहीं है। तुम समस्त व्यक्तियों के आचरणों को देखते हो। देव ! मैं लौकिक सदनों को देख-देख कर तृप्त हो चुका हूं। अब मैं तुम्हारी नाम-रूपी यष्टि को स्वयं हाथ में धारण कर उस विचित्र सदन को देखने के लिए लालायित देव ! तुम्हारा स्थान अक्षय, अरुज, ज्योतिर्मय, उज्ज्वल और अम्लान है किन्तु मेरे पास कोई यान नहीं हैं जिससे कि मैं वहां पहुंच सकू। तुम्हारे करुणारूपी वृक्ष की उन्नत शाखाओं पर आरूढ़ होकर मैं शिवपुरी की भूमि पर चला जाऊं। हे शस्यगुण ! उस ओर जाने का मुझे आकर्षण दो। देव ! ये कर्म बहुत बार मेरे में आकांक्षा पैदा करते हैं और मेरे शरीर को बार-बार विकृत कर देते हैं । ये कर्म कभी मुझ में सत् स्नेह का सिंचन करते हैं तो कभी मेरे समूचे घर का ही शोषण कर देते हैं । देव ! मैं इन कर्म-रूपी कृषक के कार्यो से आकंठखिन्न हो गया हूं। हे भुवनेश ! पुनर्जन्म का सारा सामर्थ्य नष्ट हो ऐसी वृष्टि मुझ पर करो। देव ! मैं केवल मृगतृष्णा से आक्रान्त होकर इधरउधर घूमता रहा हूं। सुख की प्रचुर लिप्सा से क्लान्त मैंने कहीं भी विश्राम नहीं पाया। भगवन् ! अब मैं तुम्हारे चिन्मय चित्त के साथ प्रमोदभाव से मैत्री कर, समस्त तृष्णाओं को समाप्त कर तुम्हारे मंदिर में प्रवेश पाकर तुम्हारी आत्मा के चिदानन्द स्वरूप में अनुरक्त हो जाऊं। देव ! तुम मेरे प्राणधन हो । तुम मेरे हृदय के अन्तर्यामी हो। मैं तुमसे भेद न करूं-ऐसी वांछा करता हूं। 'मैं' और 'तुम'---इस अन्तर को दूर करूं । मैं तुममें मिलकर 'मैं' 'तुम' ही हूं-ऐसा अनुभव करूं । प्रभो! मैं ऐसा ही परामर्श प्राप्त करूं। (वि० सं० १९६६ चातुर्मास, चूरू) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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