Book Title: Atula Tula
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 233
________________ सिद्धस्तवनम् २११ यायां मातृमहिं सुमनोज्ञां, स्वामिन् ! शिवनगरस्य, शस्यगुण ! देहि तदाकृष्टिम् ॥४॥ असकृदुत्पादयते सेहं, विकृतयत्यनुत्तरं देहम् । कहिचित् सिञ्चति सत्स्नेह, कहिचिच्छोषयते गेहम् । आकण्ठं खिन्नोऽभवं, कर्मकृषककार्येण, सामर्थ्य पुनरुद्भवनस्य, स्यान्नष्टं भुवने न, येन मयि कुरु. तादृग्वृष्टिम् ॥५॥ केवलं मृगतृष्णाक्रान्तस्तत इतो भूरितरं भ्रान्तः । प्रचुरतरसुखलिप्साक्लान्तः क्वापि नाहं भगवन् श्रान्तः । संप्रति तव चिच्चेतसा, मैत्री प्रमुदां वाप्य, चिदानन्दरूपे रज्येह, तृष्णामपि च समाप्य, प्राप्य. तव मन्दिरे प्रविष्टिम् ॥६॥ त्वमसि मे प्राणधनं स्वामी, त्वमसि मे ह्यदयान्तर्यामी। त्वामहं न यथा विभजामि, तादृशीं वाञ्छां विदधामि । युष्मदष्मदोरन्तरं दूरं सपदि सृजामि, त्वमिति रूपमहं नथमल्लस्त्वयि मिलितोनुभवामि, यामि - तामेवपरामृष्टिम् ॥७॥ भगवन् ! तुम मेरे पर करूणा-दृष्टि करो और मुझे आनन्दमय सृष्टि दिखाओ। जगत् में चारों ओर कष्ट हैं, कहीं आनन्द नहीं दीख रहा है। यह मन मोह की महिमा की अरुणिमा से आकृष्ट है और स्पष्टतया उसी में मूढ़ है। प्रभो! तुम मुझे शांति प्रदान करने वाली, परम ईश्वररूपी उत्कृष्ट औषध देकर मेरे मोह रोग को नष्ट कर डालो ताकि मैं अपने आत्म-हित के लिए प्रयत्न कर सकू और भविष्य में तुम्हारे अनुशासन का पालन कर सकूँ । उपशमरूपी अमृतरस को पीकर, विषय-संपृक्त वासना को छोड़कर, चिद्रूप आनन्द को प्राप्त कर तथा मोह-शत्रु को शीघ्र ही जीतकर मैं आत्मगुणों की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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