Book Title: Atula Tula
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 230
________________ २०८ अतुला तुला परं त्वहं तु क्रममेव मन्ये, परःसहस्रांघ्रि मनोनिवासात् ॥११॥ कुछ व्यक्ति आपके हृदय को विशाल बताते हैं, कुछ आपके मन को और कुछ आपके सुन्दर ललाट को । किन्तु देव ! मैं तो आपके चरणों को ही विशाल मानता हूं जहां कि हजारों-हजारों व्यक्तियों के मन निवास करते हैं। वाणी पवित्रं विदधाति कर्णं, स्तुती रसज्ञां नयनं च मूत्तिः । परं तु सर्वोत्तममुत्तमाङ्ग, पुनाति पुण्यश्चरणस्तवासौ ॥१२॥ देव ! आपकी वाणी कानों को, स्तुति जिह्वा को और दर्शन आंखों को पवित्र करता है। किन्तु सभी अंगों में उत्तम सिर को पवित्र करने वाले तो आपके चरण ही हैं। उदारताप्यस्य मुदा प्रशस्या, स्वयं प्रयासं बहुलं सहित्वा । शान्ति परस्मै वितरत्यतुच्छां, ततो हि पूतं धरिणीतलञ्च ।।१३।। इन चरणों की उदारता भी भूरि-भूरि प्रशंसनीय है। ये स्वयं बहुत आयास सहन करके दूसरों को विपुल शांति प्रदान करते हैं । इसीलिए यह पृथ्वीतल इनसे पवित्र हो रहा है। आभ्यन्तरध्वान्तहरं प्रकाश, सौम्यं निरङ्क त्रसनं निपक्षम् । बुद्धि च विद्यां परमाप्तगन्त्री, नीति पवित्रां दमनं निखर्वम् ।।१४।। भास्वान् हिमांशुम हिजो बुधश्च, गुरुः कविः शौरिरिमेऽनुसंख्यम् । सप्ताऽपि वारा इह बद्धवारास्त्वां यान्ति पूर्वोदितमाप्तुकामाः ॥१५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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