Book Title: Ashtapad Maha Tirth 01 Page 177 to 248 Author(s): Rajnikant Shah, Kumarpal Desai Publisher: USA Jain Center America NY View full book textPage 4
________________ Shri Ashtapad Maha Tirth अष्टापद के अप्राप्य होने का तीसरा कारण यह भी है कि सगर चक्रवर्ती के पुत्रों ने अष्टापद पर्वत स्थित जिनचैत्य स्तूप आदि को अपने पूर्वज वंश्य भरत चक्रवर्ती के स्मारक के चारों तरफ गहरी खाई खुदवाकर उसे गंगा के जलप्रवाह से भरवा दिया था, ऐसा प्राचीन जैन कथासाहित्य में किया गया वर्णन आज भी उपलब्ध होता है। उपर्युक्त अनेक कारणों से हमारा अष्टापद तीर्थ जिसका निर्देश श्रुत केवली भगवान् भद्रबाहु स्वामी ने अपनी आचारांग नियुक्ति में सर्वप्रथम किया है, हमारे लिये आज अदर्शनीय और अलभ्य बन चुका आचारांग नियुक्ति के अतिरिक्त आवश्यक नियुक्ति की निम्नलिखित गाथाओं से भी अष्टापद तीर्थ का विशेष परिचय मिलता है अह भगवं भवमहणो पुव्वाणमणूणयं सयसहस्सं । अणुपुब्बि विहररिऊणं पत्ती अट्ठावयं सेलं ।। ४३३ ।। ' अट्ठावयम्मि सेले चउदसभत्तेण सो महरिसीणं । दसहिं । सहस्सेहि समं निव्वाणमणुत्तरं पत्तो ॥ ४३४ ॥ * तब संसार दुःख का अन्त करने वाले भगवान् ऋषभदेव सम्पूर्ण एक लाख पूर्ववर्षों तक पृथ्वी पर विहार करके अनुक्रम से अष्टापद पर्वत पर पहुँचे, और छः उपवास के तप के अन्त में दस हजार मुनिगण के साथ सर्वोच्च निर्वाण को प्राप्त हुए || ४३३ || ४३४ ।। * यह गाथांक Prachin Jain Tirth - निव्वाणं चिइगागिई जिणस्स इक्खाग - सेसगाणं च । सकहा ३ शुभ जिणहरे ४ जायग ५ तेणाऽहिअग्गिति ||४३५ ।। * भगवान् और उनके शिष्यों के निर्वाणान्तर चतुर्निकायों के देवों ने आकर उनके शवों के अग्नि संस्कारार्थ तीन चिताएँ बनवाईं। पूर्व में गोलाकार चिता तीर्थंकर के शरीर के दाहार्थ, दक्षिण में त्रिकोणाकार चिता इक्ष्वाकुवंश्य गणघरों के तथा महामुनियों के शवदाहार्थ बनवाईं, और पश्चिम दिशा की तरफ चौकोर चा शेष श्रमणगण के शरीर संस्कारार्थ बनवाई, और तीर्थंकर आदि के शरीर यथास्थान चिताओं पर रखकर अग्निकुमार देवों ने उन्हें अग्नि द्वारा सुलगाया, वायुकुमार देवों ने वायु द्वारा अग्नि को जोश दिया, और चर्म-मांस के जल जाने पर मेघकुमारों ने जलवृष्टि द्वारा चिताओं को ठण्डा किया। तब भगवान् के ऊपरी आये जबड़े की शक्रेन्द्र ने दाहिनी तरफ की ईशानेन्द्र ने तथा निचले जबड़े की बांई तरफ की चमरेन्द्र ने, और वाहिनी तरफ की दावें बलीन्द्र ने ग्रहण की। इन्द्रों के अतिरिक्त शेष देवों ने भगवान् के शरीर की अन्य अस्थियाँ ग्रहण कर लीं। तब वहाँ उपस्थित राजादि मनुष्यगण ने तीर्थङ्गर तथा मुनियों के शरीर दहन स्थानों की भस्म को भी पवित्र जानकर ग्रहण कर लिया । चिताओं के स्थान पर देवों ने तीन स्तूप बनवाये, और भरत चक्रवर्ती ने चौबीस तीर्थङ्करों की वर्णमानोपेत सपरिकर मुर्तियाँ स्थापित करने योग्य जिनगृह बनवाये। उस समय जिन मनुष्यों की चिताओं से अस्थि, भस्मादि नहीं मिला था, उन्होंने उसकी प्राप्ति निबन्ध निश्चय की है । as 140 aPage Navigation
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