Book Title: Aptavani 04
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 9
________________ भजना से उनके चरणकमल में स्थान प्राप्त किया जा सकता है, जहाँ से मोक्ष संभव है। भौतिक में जगत् जागता है, वहाँ ज्ञानी सोते हैं और अध्यात्म में जगत् सोता है, वहाँ ज्ञानी जागते हैं! संसारी जागृति अहंकार सहित है और जहाँ निर्अहंकारी जागृति है, वहाँ मुक्ति ! [२] ध्यान ध्यान क्या है? ध्यान, वह करने की चीज़ नहीं है। ध्यान तो सहज ही उत्पन्न होता है। ध्यान, वह परिणाम है। जगत् जिसे ध्यान कहता है, वह ध्यान, ध्यान नहीं है, पर एकाग्रता है। वीतरागों ने चार प्रकार के ध्यान बताए हैं। कोई गाली दे, तब अंदर उल्टे परिणाम खड़े हों, रौद्र परिणाम खड़े हों, उन्हें रौद्रध्यान कहा है और उन परिणामों का असर खुद को और सामनेवाले को भी पहुँचता है ! अब यदि वह असर खुद तक ही सीमित रहे, अन्य को सहज भी चोट नहीं पहुँचाए, वह आर्तध्यान है। मेरा क्या होगा? भविष्य की चिंता, वह आर्तध्यान में समाता है। असर करनेवाली घटनाओं में, ऐसा परिणाम खड़ा हो कि यह तो मेरे ही कर्म का उदय है, सामनेवाला निमित्त है, निर्दोष है, तो वह धर्मध्यान है। खुद का स्वरूप शुद्धात्मा है, वैसा निरंतर लक्ष्य में रहे, सामनेवाले में शुद्धात्मा के दर्शन होते रहें, वह शुक्लध्यान । ध्येय नक्की हो जाए और खुद ध्याता हो जाए, फिर दोनों का संयोजन हो जाए, तब ध्यान सहज ही उत्पन्न होता है। ध्येय नक्की होने में अहंकार का अस्तित्व है, ध्यान में नहीं। क्रिया में अहंकार होता है, ध्यान में नहीं। क्रिया ध्यान नहीं है, पर क्रिया में से जो परिणाम उत्पन्न होता है, वह ध्यान है, जिसमें अहंकार नहीं है। ध्यान किया नहीं जाता, हो जाता है। आर्तध्यान, रौद्रध्यान हो जाता है। कोई उन्हें करता नहीं है, धर्मध्यान और शुक्लध्यान भी सहज हो जाते हैं। आर्तध्यान हो जाने के बाद यदि 'मैं आर्तध्यान कर रहा हूँ' वैसी मान्यता घेर ले, वहाँ अहंकार है। आर्त, रौद्र और धर्मध्यान में ध्याता अहंकार है। शुक्लध्यान में अहंकार ध्याता नहीं १५ है, वह तो स्वाभाविक परिणति है, शुक्लध्यान- वह आत्मपरिणति है। आत्मध्यान के अलावा अन्य किसी ध्यान का मोक्ष के लिए महत्व नहीं है। आत्मध्यान निरंतर समाधि में रखता है। राग-द्वेष निकालने के लिए ध्यान नहीं करना है। वीतराग विज्ञान समझें, तब राग-द्वेष जाते हैं। [३] प्रारब्ध-पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थ की भेदरेखा समझे बिना 'खुद' का कर्त्तापन, अकर्त्तापन कितना है, वह खुद को कैसे समझ में आए ? पूरा जगत् इस अनसुलझी पहेली में फँसा हुआ है। दरअसल पुरुषार्थ - धर्म में आए हुए 'ज्ञानी पुरुष' के बिना कौन यह भेद प्राप्त करवाए ? विश्व में इस काल में प्रथम बार प्रारब्ध और पुरुषार्थ के सूक्ष्मातिसूक्ष्म भेद संपूज्य श्री दादाश्री की वाणी द्वारा प्रकट हुए हैं, जो मुमुक्षुओं को नई राह दिखाते हैं। पाँच इन्द्रियों से जो-जो होता है, वह पुरुषार्थ नहीं है, सबकुछ प्रारब्ध ही है। सुबह से शाम तक भागदौड़ करते हैं, नौकरी-धंधा करते हैं, श्वास लेते-छोड़ते हैं, पुस्तक पढ़ते हैं, शास्त्र पढ़ते हैं, सामायिक करते हैं, जपतप करते हैं, वह सारा ही प्रारब्ध है। भोजन खाने के बाद पाचन में हमारा क्या पुरुषार्थ है? 'हमारी' दखल के बिना कुदरत अंदर की मशीनरी इतने सुंदर प्रकार से चलाती है तो क्या वह बाहर का नहीं चला लेगी? वास्तव में तो वही चलाती है। पर उससे संबंधित अज्ञान के कारण अहंकार किए बिना रह नहीं सकता कि 'मैं करता हूँ' ! नर्मदा के नीर में बहते हुए बड़े पत्थर आमने-सामने रगड़ खाते हुए, टकराते हुए, अंत में नदी के मुहाने पर शालिग्रामवाले देवता बन जाते हैं। उसमें किसीका क्या पुरुषार्थ ? और दूसरे पत्थर, पत्थर ही रहकर समुद्र में डूब गए, उसमें उनका क्या प्रमाद? इसमें किसका कितना कर्त्तापन ? यह तो जिसे जो संयोग मिला, वैसा हुआ! समसरण मार्ग में, धक्के खाते हुए, टकराते हुए जीव अंत में हिन्दुस्तान में जन्म पाते हैं और उसमें भी १६

Loading...

Page Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 ... 191