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यदि कभी समर्थ 'ज्ञानी पुरुष' से भेंट हो जाए और उनके द्वारा समकित प्राप्त हो गया तो हो गया शालिग्राम ! समकित होने के बाद ही 'पुरुष' होकर 'रियल' पुरुषार्थ में आता है, तब तक भ्रांत पुरुषार्थ ही कहलाता है। पुद्गल परिणति में कहीं भी राग-द्वेष नहीं हो, वह 'रियल' पुरुषार्थ ।
अहंकार के अस्तित्व के कारण कर्मबीज डलते ही रहते हैं, जो परिणाम स्वरूप कड़वे या मीठे फल देते ही हैं। अब वहाँ उल्टे परिणाम को सीधे में बदलना वह भ्रांत पुरुषार्थ! संयोग मिला वह प्रारब्ध और उसमें समता रखे, वह पुरुषार्थ । फिसल जाने के संयोग में स्थिर रहे, वह पुरुषार्थ। आर्तध्यान-रौद्रध्यान को धर्मध्यान में बदल दे, वह पुरुषार्थ।
'अक्रमज्ञानी' ने प्रारब्ध-पुरुषार्थ की उलझन में से निकालकर 'कौन कर्ता' की यथार्थ समझ 'व्यवस्थित शक्ति' के नये ही अभिगम द्वारा देकर प्रकट की है। जो स्वरूपलक्षियों को केवलज्ञान तक पहुँचा दे, वैसा है! खुद को कापना का भान बरतता है, तब तक 'व्यवस्थित' की समझ सोने की कटारी के समान है! जहाँ अहंकार - वहाँ 'खुद' का कर्त्तापन, निअहंकार वहाँ 'व्यवस्थित' का कर्त्तापन।
शुद्ध उपयोग 'रियल' पुरुषार्थ है। कषाय के संयम को पुरुषार्थ कहा है और समता और ज्ञान से उत्पन्न होनेवाले को स्वभाव कहा है। यम, नियम, संयम को पुरुषार्थ कहा है। संयम और तप में क्या फर्क है? संयम में तपना नहीं होता और तप में तपना होता है, मन को तपाना होता है! ज्ञानी की आज्ञा में बरते, वह पुरुषार्थ है, वही धर्म है।
न तो प्रारब्ध बड़ा, न ही पुरुषार्थ बड़ा। इन दोनों को जो यथार्थ रूप से समझे वह बड़ा, ऐसा 'ज्ञानी पुरुष' कह गए हैं।
फुटकर, जो मिला वह खा ले, वह प्रारब्धकर्म और पेट में मरोड हों. वह प्रारब्ध कर्म का फल और फुटकर खाया जाता है वह पूर्वभव के संचित कर्मों के कारण! बोलो, अब इस प्रारब्धकर्म के फल को बदला किस तरह जाए? बदलाव संचितकर्म निर्मित होते समय ही हो सकता है।
सारा द्रव्य प्रारब्ध है और भाव पुरुषार्थ है। भ्रांत दशा में जीव-मात्र
को भाव-पुरुषार्थ चलता ही रहता है, उसके हिसाब से अगले भव के कर्म बंधते हैं, जिनका खुद को भी भान नहीं होता!
[४] श्रद्धा अंधश्रद्धा को ठुकरानेवाले जानते नहीं कि खुद कितनी अधिक अंधश्रद्धा में है!!! किस श्रद्धा के कारण पानी पीया जाता है? उसमें विष नहीं उसका क्या भरोसा? खाने में छिपकली या जीवजंतु नहीं पड़ा उसका क्या भरोसा? कोई इसकी जाँच करता है? तो ये अंधश्रद्धा पर ही चलते हैं न? इस तरह जिनसे अंधश्रद्धा के बिना एक कदम भी नहीं उठाया जाता, वे दूसरों की अंधश्रद्धा की किस तरह निंदा कर सकते हैं?
[५] अभिप्राय अभिप्रायों के आधार पर दृष्टि निर्मित होती है और वैसा ही फिर दिखता रहता है। कोई व्यक्ति खटकता रहे, उसमें वैसी दृष्टि का दोष नहीं है। उस दृष्टि को बनानेवाले अभिप्राय के कारण यह भूल होती रहती है।
'प्रिज्युडीसवाली' (पूर्वाग्रहवाली) दृष्टि संसार का सर्जन करती है। चोरी होते हए नजरों के सामने देखते हए भी चोर के प्रति जिसे किंचित् मात्र दृष्टि प्रिज्युडिस नहीं होती, वे ज्ञानी ! कल जो चोर है, वह साहूकार नहीं बनेगा, उसका क्या भरोसा?
स्वादिष्ट आम को इन्द्रिय स्वीकार करे उसमें हर्ज नहीं है, परन्तु वह फिर याद आए उसका जोखिम है, क्योंकि उसके पीछे यह आम अच्छा है', वैसा अभिप्राय पड़ा हुआ था, जो राग-द्वेष में परिणमित होता है।
एक वस्तु पर केन्द्रित हो चुका ज़बरदस्त अभिप्राय अटकण (जो बंधनरूप हो जाए, आगे नहीं बढ़ने दे) में परिणमित होता है, जिसका प्रभाव बिखरे हुए अनेकों अभिप्रायों से भी अधिक भयंकर प्रकार से प्रवर्तित होता
है।
'विषय राग-द्वेषवाले नहीं हैं, अभिप्राय की मान्यता ही राग-द्वेष है।' - दादाश्री।
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