Book Title: Anuyogdwar Sutram Uttararddh
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Murarilalji Charndasji Jain

View full book text
Previous | Next

Page 3
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राक पक्तियां। प्रिय मुज्ञ पुरुषो! मनुष्य पर्याय पाकर जीव ने यदि प्रात्मकल्याण-आत्म संशोधन-आत्मोनति--परमात्मपदप्रतिष्ठान नहीं किया, जिसे कि उसने आजतक नहीं किया है और भोगोपभोगों में ही सर्वथा-सर्वदा व्यस्त रहा, जैसा कि अनादिकाल से वह प्राण रहता चला आया है, तो कहना चाहिये कि एक तरह से उस ने कुछ भी नहीं किया और इस मनुष्य पर्याय को, जो कि सर्व पर्यायों में श्रेष्ठ है तथा जिस के लिये इन्द्रादि देव भी तरसते रहते हैं, व्यर्थ हो गँवाया। मनुष्य पर्याय को व्यर्थ गँवा देना ठीक वैसा ही है जैसा कि एक मणि के टुकड़े को समुद्र में डाल देना। एक बार हाथ में पाए हुर मणि कण का समुद्र में पटक देने से जैसे उस को पुनः मिलना दुर्लभ है, वैसे ही मनुष्य पर्याय को भी एक बार पाकर उसका सदुपयोग न करना व समुद्र में डाल देने के बराबर है, वहां से उस का पुनः प्राप्त करना दुर्लभ है । यात्मविकास आत्मा तभी कर सकता है, जब उसे मात्मा का स्वरूप, आत्म विकास के साधन आदि ज्ञात हों। आत्मा का स्वरूप भोर भात्मविकास के साधनों का ज्ञान प्रात्मा को अध्यात्म साहित्य के अवलोकन, पठन-पाठन, मनन आदि से हो हो सकता है । देश-विदेश के समाचारों का ज्ञान मनुष्य का जैसे समाचार पत्रों से होता है, कृषि का ज्ञान मनुष्य को जैसे कृषि शास्त्र से होता है; काम की ज्ञान मनुष्य को जैसे कामशास्त्र से हाता है; उसी तरह आत्माट कार और 'नति के साधनों का ज्ञान मनुष्य को अध्यात्मशास्त्र से । प्रन्थ -'श्रीमदनुयोगद्वार सूत्र' अध्यात्म ग्रन्थ हा है। अध्यात्म प्रेस रचा गया। प्रन्य कठिन नहीं है। हालांकि लोगों को वह कठिन यतीत होने का तो कारण यह है कि जिस विषा को श्रार लोगों को रुचि - काहीतो, वह उन्हें कठिन ही प्रतीत होता है। और जिवर प्रीति सरल प्रतीत हाता है - उसको कठिनाइयाँ फिर कठिनाइयाँ नहीं १३तना लिख कर इम इन पंक्तियों को यहाँ समाप्त करते हैं किप्रत्येक स्वकाय जावन सम्यग् दशन भोर सम्यग चरित्र से अनंकन 1 सूत्र में सम्यग ज्ञान और दर्शन का भलो भांति स्वरूप वर्णित किया गया है संक्षेप में सम्यग् चारित्र का भी वर्णन किया गया है। से पूर्व इस सूत्र का अध्ययन करना चाहिये । चार प्रमाण, नव प्रतः वाद, तथा नाना प्रकार के विषयों के अध्ययन करने से सम्यग ज्ञान और सम्यग् दर्श मेली भांति प्राप्ति हो सकती है। और निज भात्ना का विशद नुवाद करने का तात्पर्य यही है कि प्रत्येक प्राणो इस सूत्रज्ञान का अनुभा का के अ और फिर स्वकीय शात्मा को सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यान से सुशोभित कर मोक्षाधिकारी बन सके । भवदीयःजैनमुनि उपाध्याय आत्माराम होती है, वह वि रहतीं । अन्त करना प्रकार से सकता है। For Private and Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 ... 329