Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 13
________________ अनजाने ही नमित से खड़े रह गये | योद्धा का कठोर हृदय पसीज आया । भरभराये कण्ठ से बोले : 'देवी, यह सब क्या है ? महावीर इसे सह सकता है, हम मनुष्य हो कर तुम्हारे इस कायोत्सर्ग को कैसे सहें ? हम कैसे खायें, कैसे पियें, कैसे जियें, कैसे अपना कर्तव्य करें । भदन्त महावीर..' और एक आकस्मिक उल्कापात - सा देवी का स्वर फूटा : 'सावधान सेनापति ! भदन्त महावीर नहीं, भगवान् महावीर, त्रिलोकपति महावीर ! ' 'देवी के भक्तिभाव का आदर करता हूँ । मगर तुम्हारे भगवान् के श्रमण और तीर्थंकर रूप को मगध ने देखा है, वैशाली का वैसा सौभाग्य कहाँ ?' 'आप की ईर्ष्या नग्न हो गई, आर्य सेनापति ! उन सर्वदर्शी प्रभु के भीतर तो भूमि और भूमिज को ले कर कोई भेदाभेद नहीं । उन समदर्शी भगवान् तक से आपको ईर्ष्या हो गई ? आप उनके प्रताप को सह नहीं सकते ? श्रमण भगवान् तो अपने तपस्याकाल में भी कई बार वैशाली आये । लुहारों, चर्मकारों, चाण्डालों, महामानी नवीन श्रेष्ठि तक को वे अपनी कृपा से धन्य कर गये । लेकिन महासेनापति सिंहदेव को राज्य और युद्ध से कहाँ अवकाश ?' 'क्षत्रिय अपने कर्तव्य पर नियुक्त है, कल्याणी । श्री भगवान् की कृपादृष्टि हम पर कभी न रही। वे पंचशैल में ही तपे, और मगध में ही उनकी चरम समाधि हुई। वहीं वे अर्हत् केवली हो कर उठे। वहीं के विपुलाचल पर तीर्थंकर महावीर का प्रथम समवसरण हुआ । वैशाली उनकी चरण-धूलि होने योग्य तक न हो सकी। हमारा महा दुर्भाग्य, और क्या कहें !' रोहिणी का स्वर कातर होते हुए भी, कठिन होता आया । वे बोली : 'विपुलाचल का समवसरण तो त्रिलोक के प्राणि मात्र का आवाहन कर रहा था। सारा जम्बूद्वीप वहाँ आ कर नमित हुआ । लेकिन आप और आपका राजकुल वहाँ न जा सका। अपने सूर्यपुत्र तीर्थंकर बेटे को देखना लिच्छवियों को न भाया । लेकिन वैशाली की प्रजाओं ने अपने प्रजापति के, इन्द्रों और माहेन्द्रों से सेवित त्रैलोक्येश्वर रूप का दर्शन किया है। उस ऐश्वर्य और सत्ता को वाणी नहीं कह सकती ! ' 'क्या गान्धार-नंदिनी ने भी तीर्थंकर महावीर के दर्शन किये हैं ? ' 'उनके दर्शन न किये होते, तो मैं क्यों कर जीती, क्यों कर यहाँ खड़ी रह सकती ! ...' देवी का गला भर आया । आँखें वह आई । 'कभी तुमने बताया नहीं, रानी ! मुझसे भी छुपाया ?' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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