Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 16
________________ जब से मगध के साथ वैशाली का शीत-युद्ध जारी है, बरसों से नगर के उत्तर, दक्षिण और पश्चिम के द्वार बन्द हैं। परकोट सेनाओं से पटे हैं, और बन्द द्वारों पर कीले, भाले और बल्लम गड़े हैं। केवल पूर्वीय सिंहतोरण से ही सारा आवागमन होता है। और श्री भगवान् का आगमन भी नगर के पूर्वीय और प्रमुख तोरण-द्वार से ही तो हो सकता था। सो वहीं तो सारे स्वागत के आयोजन थे। वहीं कुमारी देहों के तोरण तने थे, वहीं रोहिणी मामी अविचल पग, मंगल-कलश को साजे खड़ी थीं। इस क्षण वे मूछित हो गयी हैं। और देवी को वहाँ से उठाने की हिम्मत, स्वयम् उनके आर्यपुत्र सिंह सेनापति भी नहीं कर पा रहे हैं ।... ___ मध्याह्न का सूर्य आकाश के बीचोंबीच तप रहा है। और ठीक उसके नीचे सहस्रार के चन्द्रमण्डल-सा एक दिगम्बर पुरुष, वैशाली के शूलों और साँकलों जड़े बन्द पश्चिमी द्वार के सम्मुख आ खड़ा हुआ है। उसने सहज आँखें उठा कर द्वार की ओर देखा। और विपल मात्र में सामने जड़े शूल और साँकल फूलमाला की तरह छिन्न हो गये। अर्गलाएँ पानी की तरह गल कर ढलक पड़ी। और वे प्रचण्ड वज्र-कपाट हठात् यों खुल गये, जैसे सूर्य की प्रथम किरण पड़ते ही नीहारिका सिमट जाती है । और एक विशाल डग भर कर वह शलाका पुरुष वैशाली में प्रवेश कर गया। "हठात् यह क्या हुआ, कि एक नीरवता जादुई सम्मोहन की तरह सारी वैशाली पर व्याप गई। जनगण के हृदय में दिनों से उमड़ती जयकारें भीतर ही लीन हो रहीं। समस्त पौर-जनों की चेतना एक गहरी शांति में स्तब्ध हो कर श्रीभगवान् के उस नगर-विहार को देखने लगीं। एक गहन चुप्पी के बीच सहस्र-सहस्र सुन्दरियों की गोरी बाँहें भवन-वातायनों से श्रीभगवान् पर फूल बरसाती दिखायी पड़ीं। ___हजारों-हज़ारों मुण्डित श्रमणों से परिवरित श्रीभगवान् वैशाली के राजमार्ग पर यों चल रहे हैं, जैसे सप्त सागरों से मण्डलित सुमेरु पर्वत चलायमान हो। हिमालय और विन्ध्याचल उनके चरणों में डग भर रहे हैं। कभी वे कोटि सूर्यों की तरह जाज्वल्यमान लगते हैं, कभी कोटि चन्द्रमाओं की तरह तरल और शीतल लगते हैं। मानवों ने अनुभव किया कि आँख और मन से आगे का है यह सौन्दर्य, जो प्रति क्षण नित नव्यमान है। सब से आगे चल रहा है, हिरण्याभ सहस्रार के समान धर्मचक्र। भगवती चन्दनबाला की उद्बोधक अंगुलि पर मानो उसकी धुरी घूम रही है। और पुण्डरीक के उज्ज्वल वन जैसी सहस्रों सतियाँ भगवती को घेर कर चल रही हैं। और मानो कि श्रीभगवान् और उनके सहस्र-सहस्र श्रमण उनका अनुसरण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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