Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 12
________________ मारे नगर में व्याप्त रंगारंग फूलों, पातों, रत्नों के तोरणों, बन्दनवारों और द्वारों तले, रात-दिन हज़ारों नर-नारी नाच-गान में डूबे रहते हैं । हर चौक-चौराहे पर उद्यानों और चौग़ानों में नाट्य और संगीत का अटूट सिलसिला जारी है। सारे विदेह देश की असूर्यपश्या सुन्दरियाँ जाने किस अमोघ मोहिनी से पागल हो कर, सरे राह गाती नाचती निकल पड़ी हैं । शंख, घंटाघड़ियाल, तुरही, शहनाई और जाने कितने प्रकार के विचित्र वाजित्रों की समवेत ध्वनियों से सारा महानगर सतत गुंजायमान है । प्रत्याशा है, कि भगवान् के आगमन के ठीक मुहूर्त की सूचना मिलेगी ही । देवों के यान उतरते दीखेंगे। दिव्य दुंदुभियों के घोष सुनाई पड़ेंगे। और तब वैशाली अपूर्व सुन्दरी नववधू की तरह सर्वांग श्रृंगार कर अपने प्रभु के स्वागत हो द्वार-देहरी पर आ खड़ी होगी । सहस्रों कुमारिकाएँ परस्पर गुँथजुड़ कर, अनेक पंक्तियों में ऊपरा - ऊपरी खड़ी हो कर, श्री भगवान का प्रवेशद्वार हो जायेंगी । गान्धारी रोहिणी मामी वैशाली के सूरज-बेटे की आरती उतारेंगी। सूर्यविकासी और चन्द्रविकासी कमलों के पाँवड़ों पर बिछ - बिछ कर, अनेक रूपसियाँ उनके पग-धारण को झेलती हुई, उन्हें संथागार में ले जायेंगी । ... ऐसे ही रंगीन सपनों में बेसुध वैशाली न जाने कितने दिन उत्सव के आल्हाद से झूमती रही। लेकिन श्री भगवान् के आगमन का कोई चिह्न दूर दिगन्तों तक भी नहीं दिखायी पड़ता था । सारा जन-मन चरम उत्सुकता की अनी पर केन्द्रित और व्याकुल था । सिंह-तोरण के झरोखे में बजती शहनाई अनन्त प्रतीक्षा के आलाप में बजती चली जा रही थी । लेकिन उत्सव की धारा अब उत्तरोत्तर मन्थर होती हुई अलक्ष्य में खोई जा रही थी । तब भी सारे दिन तोरण द्वार के आगे कुमारिकाओं की गुंथी देहों के द्व अदल-बदल कर फिर बनते रहते हैं । श्री भगवान् जाने किस क्षण आ जायें ।' जाने कितने दिन हो गये, गान्धारी रोहिणी मामी सिंह-तोरण पर मंगलकलश उठाये खड़ी हैं। निर्जल, निराहार उनकी इस एकाग्र खड्गासन तपस्या से राजकुल त्रस्त है, और प्रजाएँ मन ही मन आकुल हो कर धन्य-धन्य की ध्वनियाँ कर रही हैं । सेवकों ने देवी पर एक मर्कत- मुक्ता का शीतलकारी छत्र तान दिया है । उनके पीछे बैठने को एक सुखद सिंहासन बिछा दिया है । पर देवी को सुध-बुध ही नहीं है । उन्हें नहीं पता कि वे बैठी हैं, कि खड़ी हैं, कि लेटी हैं, कि चल रही हैं, कि लास्य- मुद्रा में लीन हैं। उनकी यह अगवानी मानो चेतना के जाने किस अगोचर आयाम और आस्तरण पर चल रही है । एक दोपहर अचानक सेनापति सिंहभद्र का घोड़ा सिंह तोरण पर आ कर रुका । एक ही छलांग में उतर कर कोटिभट सिंहभद्र देवी रोहिणी के सम्मुख Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 ... 396