Book Title: Anusandhan 2013 07 SrNo 61 Author(s): Shilchandrasuri Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad View full book textPage 6
________________ 'शोध' शब्द सामान्यतः विज्ञानक्षेत्रे वपरातो होय छे. संशोधन शब्दने लगभग बधां ज क्षेत्रो खपमां ले छे. जो के एक वात स्पष्ट थवी जरूरी छे. जगतमां क्यांय/क्यारेय न होय एवं अमे शोध्यु, एम विज्ञानी भले मानता होय; परन्तु क्यांय/क्यारेय न होय एवी वस्तु जगतमां होती ज नथी, ए परम सत्य वीसरवा जेवू नथी. जे क्यांक होय छे, परन्तु मनुष्यने तेना विषे जाणकारी नथी होती; तेवी वस्तुने ज कोईक, क्यारेक, शोधी शकतो होय छे. तेणे शोधी काढ्या पहेलां ते पदार्थ मात्र कल्पनानो विषय होवाथी, शोधाया पछी बधां तेने मानता थाय छे, अने ए रीते पेलो शोधक तेमनी कल्पनाने श्रद्धामां बदली नाखतो होवाथी, तेनी शोधने 'शोध', अने ते व्यक्तिने 'शोधक' गणवामां आवे छे. __ शोध अने संशोधन – ए बन्नेमां एक बाबत समान छे : बन्ने क्यारे पण आखरी नथी होतां. आजे थनार/थयेल जे शोध अने संशोधन वाजबी अने यथार्थ तेमज कार्यसाधक लागे, ते आवतीकाले, वधु प्रमाणो उपलब्ध थये गेरवाजबी, खोटां अने कार्यबाधक पण लागी ज शके. शोधके अने संशोधके, आथी ज, खुल्लुं मन राखq जोईए. - शी. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 ... 300