Book Title: Anusandhan 2009 09 SrNo 49
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 122
________________ सप्टेम्बर २००९ ११५ त्रण लघुरचनाओ सं. विजयशीलचन्द्रसूरि प्रथम रचना श्री रैवतकगिरिमण्डन श्रीनेमिनाथ भगवाननी यमकालङ्कारबद्ध उपजातिछन्दोबद्ध संस्कृति स्तुति छे. श्री ऋषिवर्धनसूरि नामना जैन आचार्ये रचेली आ रचना १६मा शतकनी होय तेम सम्भवित जणाय छे. कृतिमां क्यांय संवतनो उल्लेख नथी. आ स्तुति साध्वी दिव्यगुणाश्रीजीए जूना डीसाना ग्रन्थभण्डारमांनी 'विशेषणवती' ग्रन्थनी प्रतिमांथी उतारो करी मोकली छे. बीजी रचना मुनि विनयसागर रचित 'सिलोकानन्दकवित्व' नामे छे. आमां कविए पोतानी काव्यचातुरी सुपेरे प्रदर्शित करी छे. प्रियतमना विरहथी व्याकुल नारीनी उक्ति छे के "मारो कंत (प्रियतम) चाली गयो छे, अने तेना विरहनी अगनज्वालामां सळगी रहेली मारा माटे शीतल नीर, (शीतल) पवन, चन्द्रमा - आ बधां वानां दुःखदायी नीवडी रह्यां छे. चन्दननो लेप शरीरे लगाईं तो ते अंगाराना दझाडता स्पर्श समो अनुभवाय छे." कवि सागरे आवी उपमा रची छे." - आ एक ज उक्तिने कविए जुदा जुदा छन्दोमां, जुदी जुदी भङ्गिमाओथी आलेखी छे : ६ दोहा, ६ सोरठा, १ पद्धडी छन्द, १ कुंडलिया, १ अडिल्ल, १ श्लोक (संस्कृत) अने १ कवित्त, आम कुल १७ पद्योमां आ एकज वात के उक्ति कविए वर्णवी छे. काव्यनी आवी चमत्कृतिनी मोज मध्यकालना जैन कविओए खूब लूंटी छे, ते आवी रचनाओ जोतां जणाई आवे छे. कर्ता पोताने 'कवि सागर' तरीके ओळखावे छे. तेमना समय विषे कोई संकेत नथी, पण १८मो शतक होवानुं अनुमान करीए तो खोटा पडवानी झाझी दहेशत नथी. आ रचना पण साध्वी श्री दिव्यगुणाश्रीजी तरफथी मळेली छे. थोडीक अशुद्ध रचना. त्रीजी रचना गौतमगणधरनो रास छे. सं. १८३४मां बीकानेरमां जेमलजी ऋषिना शिष्य (?) ऋषि रायचंदे आ रास रच्यो छे तेवू तेनी १२-१३ कडीओ परथी नक्की थाय छे. मारवाडीमिश्रित गुजराती रचना. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186