Book Title: Anusandhan 2009 09 SrNo 49
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 161
________________ १५४ अनुसन्धान ४९ औपपातिक में उनके आगामी गति का वर्णन है। कहा है कि, "ये नारदीय परिव्राजक व्यन्तरदेव होंगे अथवा ज्यादा से ज्यादा ब्रह्मलोक नामक पाँचवें स्वर्ग में जायेंगे ।" वेदोत्तरकालीन पौराणिक परम्परा में ग्यारहवी-बारहवी शताब्दी से विविध भक्तिसम्प्रदायों का जो उद्गम माना जाता है, उसके सूचक सन्दर्भ हमें औपपातिक (पाँचवी-छठी शती) तथा औपपातिक टीका से प्राप्त होते हैं । आवश्यकनियुक्ति तथा आवश्यकटीका में 'नारदोत्पत्ति' : नारद के मातापिता तथा अध्ययन आदि का वर्णन जैन परम्परा में प्रथमतः आवश्यकनियुक्ति २ तथा आवश्यकटीका ३ में दिखाई देता है । नारद के मातापिता तथा दादादादी के 'यज्ञयश' आदि नाम ब्राह्मण परम्परा के सूचक हैं । उनके तापस होने का भी कथन है । जिस उञ्छवृत्ति का यहाँ निर्देश है, उसका विशेष वर्णन हमें महाभारत में मिलता है । बालक नारद के ऊपर जृम्भक देवों ने कृपा करना तथा प्रज्ञप्ति आदि ग्रन्थों का पठन करवाना ये घटनाएं उनके श्रमण परम्परा के नजदीक होने की सूचना देती हैं। मणिपादुका तथा कांचनकुण्डिका के उल्लेख पुनः उनके ब्राह्मणत्व के ही द्योतक हैं । आवश्यकटीकान्तर्गत कथा का उत्तरार्ध ऋषिभाषित के प्रथम अध्ययन का कथन करनेवाले नारद की पूर्वपीठिका स्पष्ट करने के लिए लिखा गया है । वासुदेव कृष्ण नारद को 'शौच' शब्द का अर्थ पूछते हैं । नारद सीमन्धरस्वामी को पूछकर उसका अर्थ जान लेते हैं कि 'शौच 'सत्य' है।' वासुदेव कृष्ण नारद को 'सत्य' के अर्थ पर विचारणा करने को बाध्य करते हैं । सत्य का विशेष अर्थ खोजते खोजते नारद को 'जातिस्मरण' प्राप्त होता है और वे 'प्रत्येकबुद्ध' हो जाते हैं । टीकाकार हरीभद्र के अनुसार यही 'प्रत्येकबुद्ध नारद' ऋषिभाषित के प्रथम अध्ययन का कथन करते हैं । विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि ऋषिभाषित के 'सोयव्व' शब्द का अर्थ हरिभद्र ने 'श्रोतव्य' न करके 'शौच' किया है। प्रत्येकबुद्धत्व की प्राप्ति के बाद उनके ही मुख से चातुर्याम धर्म का प्ररूपण करवाया है । आठवीं शती में विद्यमान हरिभद्रसूरि दीक्षापूर्वकाल में ब्राह्मण परम्परा के होने से उनके सामने मनु तथा याज्ञवल्क्य स्मृतियाँ मौजूद होंगी। मनुस्मृति में मिट्टी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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