Book Title: Anusandhan 2009 09 SrNo 49
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 142
________________ सप्टेम्बर २००९ १३५ ऊपरि सोनानी थाल, अत्यंत घणुं विसाल विचमै चउसठि वाटकी लिगार नही जाति काटकी । गंगोदक दीधा थाल कचोला नै हाथ पवित्र कीधा सगली पांति बैठी तितरइ प्रीसणहारी पइठी । ते केहवी सोल शृंगार सज्या बीजा काम तज्या हाथनी रूडी, बिडं बांहे खलकै चूडी । लघलाघवी कला मन कीधा मोकला चित्तनी उदार, अति घणुं दातार । दोलती हाथ, परमेसर देजो तेहनो साथ धसमसती आवी सगलारै मन भावी । तो पहिलुं फलहल प्रीसई, ते कहेवो- सगलारां हीया हींसइ । पाका आंबानी कांतली, ते बूराखांडसुं भरी अनै पातली पाका केला, ते वली खांडसुं कीधा भेला । सखरा करणा ते वली पीलावरणा नीली नारंगी रंगइ दीसता सुरंगी । नीली रायण ते पिण प्रीसी भायण दाडिमनी कली खातां पूजे रली । निमजा नै अखोड खातां पूजैं कोडि द्राख अनै बिदाम केई कागदी केई स्याम । सिलेमी खारिक अनै खजूर, ते पिण प्रीस्या भरपूर नालेरनी गिरी मालवी गुंदसुं भरी । नीबूं खाट्टा अनै मीठा एहवा तो किहांई न दीठा चारोली नै पिसता लोक जिमैं हसता । वले सेलडी अनै सदाफल तेपिण प्रीस्या परिघल हिवै पकवान आणै ते केहवा वखाणै । सतपुडा खाजा तुरत कीधा ताजा सदला नै साजा मोटा जाणै प्रसादना छाजा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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