Book Title: Anekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 5
________________ अनेकान्त [वर्ष १० साक्षात् जानता है (हितोऽभिगच्छति) और हित जो मोक्ष तथा मोक्षका कारण क्रियाकलाप उमे प्राप्त (हितं गतम्) हुआ है अथवा हितकारी जो इन्द्रभून्यादि गणधर उनके प्रति भी हितरूप है-हितप्रद है। साथ ही 'वीर' शब्दक अर्थमें युक्तिमे वृषभादि अन्य तीर्थङ्करोंका भी समावेश किया है और इस तरह वीर भगवानक इसस्तवनमें अन्य जैन तीथङ्करोंक स्तवनको भी मम्मिलित किया है। अमरकीर्ति नामके अनेक विद्वान् श्राचार्य तथा भट्टारकादि होगये हैं। जैसे एक अमरकीर्ति वे जिन्हें वि० संवत् १२४७ में बनकर समाप्त हुए षटकर्मोपदेश नामक अपभ्रंश ग्रन्थों 'महाकवि' लिग्वा है। दूसरे अमरकीर्ति वे जिनके शिन्य माधनन्दी व्रती और प्रशिव्य भोगराज (मौदागर) थे। भोगराजने शक संवत् १२७७ (वि० सं० १४१२) में शान्तिनाथकी प्रतिमा प्रतिष्ठित कराई थी। तीसरे अमरकीर्ति वे जो कलिकालपर्वज्ञ भट्टारक धर्मभूषणक शिष्य थे और जिनका उल्लेग्ब शक सं० १२१५ में लिखे गये श्रवणबेलगोलक शिलालेख न० ११५ (२७४) में पाया है । चौथे अमरकीनि वे जो वादी विद्यानन्दके शिष्य थे और जिनका उल्लेख नगरवालुका शिलालेख नं. ४६ मे पाया है (E.C Part II)। ये विद्यानन्द के शिष्य चाथ अमरकीर्ति ही इस स्तोत्रक कता जान पड़ते हैं और इसलिये इनका तथा इस स्तोत्रकी रचनाका समय विक्रमकी १६वीं शताब्दी समझना चाहिए। हम स्तोत्रमे स्तोत्रकारने अपनी जिम 'देवागमालंकृति' नामकी रचनाका उल्लेख किया है वह अभी तक अपने दग्वनमें नहीं आई, उसकी खोज होनी चाहिये। वह बहुधा बड़े विद्यानन्दस्वामीकी 'श्राप्तमीमांसालंकृति नामक अष्टमसी ग्रन्थको सामने रखकर कुछ विशेषरूपमें लिग्वी गई होगी। [जगती] -सम्पादक] विद्याऽऽम्पदाऽऽहन्त्य-पदं पदं पदं प्रत्यग्र-मत्पद्म-परं परं परम । हेयेतराकार-बुधं बुधं बुधं वीरं तु विश्व-हितं हितं हितम् ॥११॥ दिव्यं वचो यम्य मभा सभामभा निपीय पीयपमितं मितं मितम । बभूव तृप्ता ममुगऽसुरा मुरा वीरं स्तुवे विश्वहितं हिनं हितमा शत्र-प्रमाऽन्यैरजिना जिता जिता गुग्णावली येन धृताऽधृता धृता । संवादिन तीथकर कर कर वीरं स्तुवे विश्वहितं हितं हितम ॥१॥ मयूग्व-मालेव महा महा महा-लोकोपकार मविताऽविनाऽविता। विभाति यो गन्धकुटी कुटीकुटी वारं स्तुव विश्वहितं हित हितम ।।। साऽराग-संस्तुत्य-गुग्ण गुणं गुणं ममायिष्णु मशिव शिवं शिवम । लक्ष्मीवतां पृज्यतमं तमं तम वीरं स्तुवं विश्वहितं हितं हितम ।।५।। सिद्धाथ-सन्नन्दनमाऽऽनमाऽऽनमाऽऽनंदाद्ववर्षे यमदाऽऽमदा मदा। यस्योपरिष्ट्रात कुसुम सुमं मुमं वीरं म्नुव विश्वहितं हितं हितम् ॥६॥ प्रत्यक्षमध्यदचितं चितं चितं यो मेयमर्थ मकलं कलंकलम । व्यपेत-दोपाऽऽवरणं रणं ग्णं वी स्तुवे विश्वहितं हितं हितमा युकत्याऽऽगमाऽबाधिगिरं गिरं गिरं चित्रीयिताख्येयभर भर भरम । मंख्यावतां चित्तहरं हरं हरं वीरं स्तुव विश्वहिनं हितं हितम ।।८।। अध्येयाऽऽगममध्यगीष्ट परमं शब्दं च युक्ति विदां चक्रे यः पर-शील-वादि-मद- भिवागमाऽलंकृतिम । विमानन्द-भवाऽमरादियशसा तेनाऽमुना निर्मितं वीराऽऽहत्परमेश्वरम्य यमक-स्त्रोत्राऽएक मंगलम ||६|| भटारकैः कृतं स्तोत्रं यः पठेद्यमकाउटकम। सर्वदा स भवद्भव्यो भारती-मुख-दर्पणः ॥१०॥ इति भट्रारक-श्रीअमरकीति-कृतं यमकाऽएक स्त्रोत्रं समाप्तमः ॥श्रीः।। ।

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