Book Title: Anand Pravachana Part 1
Author(s): Anandrushi
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 6
________________ पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम् । मू: पाषाणखण्डेषु रून संज्ञा विधीयते ॥ पृथ्वी में असली रत्न तो तीन ही हैं • जल, अन्न एवं सुभाषित । बाकी रत्न तो पत्थर के टुकड़ें हैं। जल और अन्न फिर भी सीमित मूल्य रखते हैं। जड़ शरीर की भूख-प्यास बुझाते तो हैं, किन्तु क्षणिक ही। वाणी अन्तर्मन की क्षुधा एवं तृष्णा को शान्त करती है, सदा सर्वदा के लिए । एक नन्हा सा दो चार शब्दों का सुभाषित भी जीवन में आमूल चूल परिवर्तन ला सकता है, मन को नया मोड़ दे सकता है और अन्धकार में ठोकरे खाते मानव के लिए प्रकाश की रखर किरण बन सकता है। प्रस्तुत पुस्तक - 'आनंद रावचन' में श्रद्धेय महामहिम आचार्यदेव श्री आनन्द ऋषि जी महाराज के से ही धीर-गम्भीर वचनों का सुन्दर प्रवाह - 'प्रवचन' के रूप में प्रस्तुत हुआ है। वे आकृति से भी महासागर की तरह प्रशांत-काँत प्रतीत होते हैं, और प्रकृति से भी । श्रद्धालु श्रोताओं को उनके मन की निर्मलता, सरलता सौम्यता और भद्रता, उनकी वाणी में पद-पद पर प्रस्फुठित होती परितक्षित होगी। उनके अन्तर में वैराग्य की जो पावन-धारा प्रवाहित हो रही है, वाणी में उसका शीतल स्पर्श सहज अनुभव किया जा सकता है। ऐसा इन प्रवचनों के सहदय पाठकों को भी अनुभव होगा। यद्यपि कुछ अन्य प्रवक्ताओं की भांति उनके प्रवचनों में तूफानी जोश और उत्तेजक शब्दावलियों नहीं मिलेंगी, पर उनका प्रभाव तो क्षणिक होता है। आचार्य श्री के प्रवचनों में एक विशेष धीरता, गम्भीरता, वाणी की समरसता व विचारों की स्थिरता है - जो श्रोता पर अपना स्थायी प्रभाव छोड़ती है। झंझानिल के साल होने वाली तूफानी वर्षा की अपेक्षा रिम-झिम की वर्षा कहीं अधिक सुश्रद एवं लाभप्रद होती है, उपज की दृष्टि से । प्रस्तुत संग्रह के कुछ प्रवजन तो ठीक इसी कोटि के हैं, बहुत ही उपयोगी, बहुत ही मार्मिक! आचार्य श्री श्रोता के सामने खुले मन के साथ स्पष्ट रूप से उपस्थित होते हैं, अत एव जो कुछ कहना चाहते हैं वह सहजभाव से कह जाते हैं। वाणी का बनाव श्रृंगार और भावों का दुराव-छिपाव उनके प्रवचनों में नहीं मिलेगा, जो कुछ वह सरल और सहज है। लगता है आचार्य श्री जिह्वा से नहीं, हृदय से बोलते हैं। इसलिए उनकी वाणी मन पर सीधा असर करती है। गाव, विशेषत: सहजभाव ही वाणी का अन्त:प्राण है। वही प्रभावोत्पादक है।' भावशून्य वाणी प्रभाव पैदा नहीं कर सकती। आचार्य श्री की वाणी में भाव है, इसलिए उसका प्रभाव भी पाठक के मन को निश्चित ही प्रभावित करेगा, ऐसा मेरा विश्वास है।

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