Book Title: Ahimsa ki Vijay
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 3
________________ दो शब्द भारत धर्मों का उद्या । है । यहाँ अनेकों धर्मवृक्ष हैं । अपने-अपने पत्र, पुष्प, फलादि का सौन्दर्य है । एक से एक बढ़ कर घटाएं हैं । कहीं अहिंसा का विमुल बजता है तो कहीं हिंसा का। दोनों धर्म के नाम पर अपना अपना चमत्कार प्रदर्शित करते हैं। भक्त चक्कर में पड़ जाते हैं। किसे सच्चा समझे ? किसका अनुकरण करें ? किसे अपनाये ? हमारा हित किसमें है ? कल्याणकारी धर्म कौन हो सकता है ? इत्यादि अनेकों प्रश्न, मणिमाला के मोतियों की भांति सामने आते हैं। इन्हीं प्रश्नों का समाधान इस लघु कथानक में अत्यन्त सुस्रष्ट किया है । सरलता से भोले, प्रज्ञानी मानव को सत्पथ पर प्राने का प्रयास है। स्वार्थी पण्डे-पुजारी किस प्रकार धर्म के नाम पर कपट जाल बिछा कर बेचारे भोले जीवों को फंसा लेते हैं और मिथ्यामागं का पाषण कर उन्हें उभयलोक भ्रष्ट कर देते हैं। इसका चित्रण बडा हो सोच और स्वाभाविक हुआ है। धनान्ध राजा-महाराजा भी विवेकशून्य हो कुमागों बन जाते हैं। सन्तति व्यामोह से सच्चे धर्म का परित्याग कर देते हैं । अन्धविश्वास से प्रात्मपतन कर बैठते हैं। यही नहीं स्वयं कर्तव्यच्युत हो प्रजा को भी धर्म कर्म बिहीन कर कुमागंरत कर देते हैं । इस सम्बन्ध में पद्मनाभ नपति और धूर्त माणिकदेव पिरोहित एवं उसका चेला नरसिंह का चरित्र इसमें इतने स्वाभाविक ढंग से निरूपित हैं कि पाठकगण एकाग्न हो पूर्वापर घटना को जानने के लिए व्यग्र हो उठेगे । हिसा को अधीष्ठात्री देवी, कालो और उनके पूजक दोनों का भंडाफोड इसमें किया गया है । यह पुस्तक धार्मिक अन्धविश्वासों का अन्त करने में सक्षम है । साथ ही सामाजिक कुरीतियों का उन्मूलन भी करने में प्रबल प्रमाण उपस्थित करती है। धर्म का संरक्षण निर्गन्थ वीतरागी साधु ही कर सकते हैं । जो स्वयं वीतरामी होगा वही वीतरागता की छाप अन्य भक्तों पर डाल सकता है। स्वयं अहिंसक हिंस्र प्राणियों को भी अहिंसक बना लेता है । आरमबलि ही IV]

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