Book Title: Ahimsa Vani 1952 08 Varsh 02 Ank 05
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Jain Mission Aliganj

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Page 10
________________ * ही कमाई हुई है । उस तरफ उसका ध्यान ही नहीं जाता कि कितनों की प्रसिद्धि छिन चुकी है और श्राये दिन छिनती रहती है और कितनों की श्राये दिन निती रहेगी । हिंसा-वाणी स्वतन्त्र होने की कोशिश से कभी किसी को छुट्टी नहीं मिलेगी। कभी कोई बाज नहीं आयेगा । स्वततंत्रता रूपी • छलिनी की चाल से बच तो कोई सकता नहीं समझ ले इतना बस है। बिना समझे स्वतन्त्रता बन्धन बन बैठेगी । पशु पक्षियों में स्वतन्त्रता बन्धन बनी हुई है । यही हाल अनगिनत विचार- विन्दु विद्या ? वि + दया. वि+दया ? विशेष दया ? विस्तार दया ? विश्वमयी दया ? विद्या = विश्वमयी दया, विश्वमयी दया ? प्रेम, प्रेम ? अहिंसा, श्रादमियों का है। दुनियाँ में बहुत कम ही ऐसे हैं जो सिर्फ बन्धन को बन्धन मानते और स्वतन्त्रता को बन्धन नहीं । स्वतन्त्रता पर जब जब श्रादमी छाया रहता है वह स्वतन्त्र समझा जाता है । स्वतन्त्रता जब श्रादमी पर छा जाती है तब वह स्वच्छन्द कहलाने लगता है । और अपने और समाज दोनों के लिये भयानक प्राणी बन बैठता है । स्वतन्त्रता का मुक्ति नाम वाला रूप दुनिया के काम का नहीं । उसमें गहरे जाने की ज़रूरत ! विद्या [ श्री बीरबल ] अहिंसा ? प्रेम, प्रेम ? आत्मा, आत्मा ? सच्ची स्वतंत्रता, सच्ची स्वतंत्रता ? प्रेम, प्रेम = अहिंसा स्वतंत्रता = अहिंसा,

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