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*हिंसा-वाणी
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है । एक को पचीस रुपए महीने तनखाह मिलती है तो वहीं दूसरे को एक हजार रुपए महीने तनखाह मिलती है। दोनों मनुष्य ही हैं । एक को बड़े-बड़े लहरदार बँगले हैं तो दूसरे के लिए एक साबूत कोठरी भी नहीं । क्या यह सब उचित है ? सामाजिक एवं सार्वजनिक जीवन में भी येही बातें सभी जगह मौजूद हैं । और हमारी सरकार ने उसे घटाने के वजाय अब तक सुदृढ़ ही करने की प्रवृत्ति प्रदर्शित की है । इतनी विभिन्नता लिए हुए भी यदि कल्ह का गुलाम भारत आज उन्नति के सपने देखे तो ये सपने ही रहेंगे। अमेरिका इंगलैण्ड सैकड़ों वर्षों से स्वतंत्र रहे हैं समुद्र ने उनकी रक्षा की है उनसे हमारी कोई तुलना नहीं । रूस और चीन अपनी व्यवस्था में परिवर्तन करके ही इतनी शीघ्र उन्नति कर सके कि वे आज ऐंग्लो अमेरिकन पूंजीवादी सुदृढ़ गुट्ट की धमकियों के सामने भी छाती ताने खड़े हैं। गरीब और गुलाम में कोई फर्क नहीं । गरीब स्वतंत्र रहे तो या गुलाम रहे तो उसमें कोई विशेषता उसके लिए नहीं होती । सच्चा उत्साह पैदा करने के लिए गरीब को वादाओं द्वारा अब नहीं फुसलाया जा सकता उसके सामने तो ठोस बातें और प्रत्यक्ष हित (interest) साधन की व्यवस्था रखनी होगी। देश का वर्तमान सामाजिक वैषम्य इतना भीषण है कि
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सारी प्रगति की चेष्टाएँ इसके पेट में इस तरह चली जायँगी जैसे एक मगर किसी मछली को निगल जाता है । देश की सच्ची उन्नति, प्रगति एवं स्थाई उत्थान के लिए इस वैषम्य को घटाना और घटा कर यथा संभव मिटा देना ही हमें उत्साह प्रदान कर सकता है और हमारी प्रगति तब एक सूत्रता में आवद्ध होने से तेज होगी । हम अमीर गरीब करके अलगअलग एक दूसरे को न समझते हुए सम्मिलित चेष्टा करेंगे और तभी फल भी आश्चर्य जनक होगा ।
हम स्वतंत्र हुए। पर हमारे उत्साह बजाय बढ़ने के अधिकतर विषयों में भग्न ही होते रहे । हमारे अधिकतर नेता पश्चिमीय प्रबल प्रचार और गुप्त षड़यन्त्रों से इतने अधिक प्रभावित हो गए हैं कि उनका अपना स्वतंत्र विचार कोई रह ही नहीं गया है। अब समय आ गया है (या समय बीतता जा रहा है) जब उन्हें पूँजीवादी प्रचार की रंगीनियों से अपने दृष्टिकोण को बदलकर समय की जरूरतों पर ध्यान देना होगा ।
जमींदारियाँ खतम हुईं, और भी बहुत सी बातें होंगी ही । पर अब सुस्ती की जगह अधिक तेजी और प्रगति की आवश्यकता है । हिन्दू कवि अभी भी खटाई में पड़ा है । भला वगैर स्त्रियों की स्वतंत्रता और उत्थान के कुछ हो सकता है ? आधी