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आगम सूत्र ४४, चूलिकासूत्र-१, 'नन्दीसूत्र' सूत्र-७०
अवधिज्ञानी यदि काल से संख्यात काल को जाने तो क्षेत्र से भी संख्यात द्वीप-समुद्र पर्यन्त जानता है और असंख्यात काल जानने पर क्षेत्र से द्वीपों एवं समुद्रों की भजना जानना । सूत्र-७१
काल की वृद्धि होने पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव चारों की अवश्य वृद्धि होती है । क्षेत्र की वृद्धि होने पर काल की भजना है । द्रव्य और पर्याय की वृद्धि होने पर क्षेत्र और काल भजनीय होते हैं। सूत्र - ७२
काल सूक्ष्म होता है किन्तु क्षेत्र उससे भी सूक्ष्म होता है, क्योंकि एक अङ्गुल मात्र श्रेणी रूप क्षेत्र में आकाश के प्रदेश असंख्यात अवसर्पिणियों के समय जितने होते हैं। सूत्र-७३
यह वर्द्धमानक अवधिज्ञान का वर्णन है। सूत्र-७४-७५
भगवन् ! हीयमान अवधिज्ञान किस प्रकार का है ? अप्रशस्त-विचारों में वर्तने वाले अविरति सम्यक्दृष्टि जीव तथा अप्रशस्त अध्यवसाय में वर्तमान देशविरति और सर्वविरति-चारित्र वाला श्रावक या साधु जब अशुभ विचारों से संक्लेश को प्राप्त होता है तथा उसके चारित्र में संक्लेश होता है तब सब ओर से तथा सब प्रकार से अवधिज्ञान का पूर्व अवस्था से ह्रास होता है । इस प्रकार हानि को प्राप्त अवधिज्ञान हीयमान अवधिज्ञान है। सूत्र - ७६
अप्रतिपाति अवधिज्ञान क्या है ? जिस ज्ञान से ज्ञाता अलोक के एक भी आकाश-प्रदेश को जानता है-वह अप्रतिपाति अवधिज्ञान है। सूत्र - ७७
अवधिज्ञान संक्षिप्त में चार प्रकार का है। यथा-द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से।
द्रव्य से-अवधिज्ञानी जघन्यतः अनन्त रूपी द्रव्यों की और है । उत्कृष्ट समस्त रूपी द्रव्यों को जानतादेखता है।
क्षेत्र से-अवधिज्ञानी जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भागमात्र क्षेत्र को और उत्कृष्ट अलोक में लोकपरिमित असंख्यात खण्डों को जानता-देखता है।
काल से-अवधिज्ञानी जघन्य-एक आवलिका के असंख्यातवें भाग काल को और उत्कृष्ट-अतीत और अनागत-असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी परिमाण काल को जानता व देखता है।
भाव से-अवधिज्ञानी जघन्यतः और उत्कृष्ट भी अनन्त भावों को जानता-देखता है । किन्तु सर्व भावों के अनन्तवें भाग को ही जानता-देखता है। सूत्र-७८
_ -यह अवधिज्ञान भवप्रत्ययिक और गुणप्रत्ययिक दो प्रकार से है । और उसके भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूप से बहुत-से विकल्प हैं। सूत्र - ७९
नारक, देव एवं तीर्थंकर अवधिज्ञान से युक्त ही होते हैं और वे सब दिशाओं तथा विदिशाओं में देखते हैं। मनुष्य एवं तिर्यंच ही देश से देखते हैं। सूत्र-८०
यहाँ प्रत्यक्ष अवधिज्ञान का वर्णन सम्पूर्ण ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (नन्दी) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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