Book Title: Agam 44 Nandi Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 19
________________ आगम सूत्र ४४, चूलिकासूत्र-१, 'नन्दीसूत्र' पुरुष की अपेक्षा से सादिसपर्यवसित है । बहुत से पुरुषों की अपेक्षा अनादि अपर्यवसित है । क्षेत्र से पाँच भरत और पाँच ऐरावत क्षेत्रों की अपेक्षा सादि-सान्त है । पाँच महाविदेह की अपेक्षा से अनादि-अनन्त है । काल से सम्यक्श्रुत उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल की अपेक्षा सादि-सान्त है । अवस्थित काल की अपेक्षा अनादिअनन्त है। भाव से सर्वज्ञ-सर्वदर्शी जिन-तीर्थंकरों द्वारा जो भाव-पदार्थ जिस समय सामान्यरूप या विशेष रूप से कथन किये जाते हैं, हेतु-दृष्टान्त के उपदर्शन से जो स्पष्टतर किये जाते हैं और उपनय तथा निगमन से जो स्थापित किये जाते हैं, तब उन भावों की अपेक्षा से सादि-सान्त है । क्षयोपशम भाव की अपेक्षा से सम्यक्-श्रुत अनादिअनन्त है । अथवा भवसिद्धिक प्राणी का श्रुत सादि-सान्त है, अभवसिद्धिक का मिथ्या-श्रुत अनादि और अनन्त है सम्पूर्ण आकाश-प्रदेशों का समस्त आकाश प्रदेशों के साथ अनन्त बार गुणाकार करने से पर्याय अक्षर निष्पन्न होता है। सभी जीवों के अक्षर-श्रुतज्ञान का अनन्तवाँ भाग सदैव उद्घाटित रहता है । यदि वह भी आवरण को प्राप्त हो जाए तो उससे जीवात्मा अजीवभाव को प्राप्त हो जाए । बादलों का अत्यधिक पटल ऊपर आ जाने पर भी चन्द्र और सूर्य की कुछ न कुछ प्रभा तो रहती ही है। इस प्रकार सादि-सान्त और अनादि-अनन्त श्रुत का वर्णन है। सूत्र-१३७ ___-गमिक-श्रुत क्या है ? आदि, मध्य या अवसान में कुछ शब्द-भेद के साथ उसी सूत्र को बार-बार कहना गमिक-श्रुत है । दृष्टिवाद गमिक-श्रुत है । गमिक से भिन्न आचाराङ्ग आदि कालिकश्रुत अगमिक-श्रुत हैं । अथवा श्रुत संक्षेप में दो प्रकार का है-अङ्गप्रविष्ट और अङ्गबाह्य । अङ्गबाह्य दो प्रकार का है-आवश्यक, आवश्यक से भिन्न। आवश्यक-श्रुत छह प्रकार का है-सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान -आवश्यक-व्यतिरिक्त श्रुत कितने प्रकार का है ? दो प्रकार का, कालिक-जिस श्रुत का रात्रि व दिन के प्रथम और अन्तिम प्रहर में स्वाध्याय किया जाता है । उत्कालिक-जो कालिक से भिन्न काल में भी पढ़ा जाता है। उत्कालिक श्रुत अनेक प्रकार का है, जैसे-दशवैकालिक, कल्पाकल्प, चुल्लकल्पश्रुत, महाकल्पश्रुत, औपपातिक, राजप्रश्नीय, जीवाभिगम, प्रज्ञापना, प्रमादाप्रमाद, नन्दी, अनुयोगद्वार, देवेन्द्रस्तव, तन्दुलवैचारिक, चन्द्रविद्या, सूर्यप्रज्ञप्ति, पौरुषीमंडल, मण्डलप्रदेश, विद्याचरण-विनिश्चय, गणिविद्या, ध्यानविभक्ति, मरणविभक्ति, आत्मविशुद्धि, वीतरागश्रुत, संलेखनाश्रुत, विहारकल्प, चरणविधि, आतुर-प्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान आदि । यह उत्कालिक श्रुत का वर्णन हुआ। कालिक-श्रुत कितने प्रकार का है ? अनेक प्रकार का, उत्तराध्ययन, दशा, कल्प, व्यवहार, निशीथ, महानिशीथ, ऋषिभाषित, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, क्षुद्रिकाविमानविभक्ति, महल्लिकाविमानप्रविभक्ति, अङ्गचूलिका, वर्ग-चूलिका, विवाहचूलिका, अरुणोपपात, वरुणोपपात, गरुडोपपात, धरणोपपात, वैश्रमणोपपात, वेलन्धरोपपात, देवेन्द्रोपपात, उत्थानश्रुत, समुत्थानश्रुत, नागपरिज्ञापनिका, निरयावलिका, कल्पिका, कल्पावतंसिका, पुष्पिता, पुष्पचूलिका और वृष्णिदशा आदि । ८४००० प्रकीर्णक अर्हत् भगवान् श्रीऋषभदेव स्वामी आदि तीर्थंकर के हैं तथा संख्यात सहस्र प्रकीर्णक मध्यम तीर्थंकरों के हैं । १४००० प्रकीर्णक भगवान् महावीर स्वामी के हैं। इनके अतिरिक्त जिस तीर्थंकर के जितने शिष्य औत्पत्तिकी, वैनविकी, कर्मजा और पारिणामिकी बुद्धि से युक्त हैं, उनके उतने ही हजार प्रकीर्णक होते हैं । प्रत्येकबुद्ध भी उतने ही होते हैं । यह कालिकाश्रुत है । इस प्रकार आवश्यक-व्यतिरिक्त श्रुत और अनङ्ग-प्रविष्ट श्रुत का स्वरूप भी सम्पूर्ण हुआ। सूत्र-१३८ -अङ्गप्रविष्ट कितने प्रकार का है ? बारह प्रकार का-आचार, सूत्रकृत्, स्थान, समवाय, व्याख्याप्रज्ञप्ति, मुनि दीपरत्नसागर कृत्-(नन्दी) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 19

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