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आगम सूत्र ४४, चूलिकासूत्र-१, 'नन्दीसूत्र' व देखता है । उन्हीं भावों को विपुलमति कुछ अधिक, विपुल, विशुद्ध और निर्मल रूप से जानता व देखता है। सूत्र - ८३
मनःपर्यवज्ञान मनुष्य क्षेत्र में रहे हुए प्राणियों के मन द्वारा परिचिन्तित अर्थ को प्रगट करनेवाला है । क्षान्ति, संयम आदि गुण इस ज्ञान की उत्पत्ति के कारण हैं और यह चारित्रसम्पन्न अप्रमत्तसंयत को ही होता है। सूत्र-८४
यह हुआ मनःपर्यवज्ञान का कथन । सूत्र - ८५
भगवन् ! केवलज्ञान का स्वरूप क्या है ? गौतम ! केवलज्ञान दो प्रकार का है, भवस्थ-केवलज्ञान और सिद्ध-केवलज्ञान | भवस्थ-केवलज्ञान दो प्रकार का है । यथा-सयोगिभवस्थ-केवलज्ञान एवं अयोगिभवस्थ केवलज्ञान । गौतम ! सयोगिभवस्थ-केवलज्ञान भी दो प्रकार का है, प्रथमसमय-सयोगिभवस्थ केवलज्ञान । इसे अन्य दो प्रकार से भी बताया है । चरमसमय-सयोगिभवस्थ केवलज्ञान और अचरम समय-सयोगिभवस्थ केवलज्ञान -अयोगिभवस्थ केवलज्ञान दो प्रकार का है । उसे सयोगिभवस्थ के समान जान लेना। सूत्र-८६
सिद्ध केवलज्ञान कितने प्रकार का है ? दो प्रकार का है, अनंतरसिद्ध केवलज्ञान और परंपरसिद्ध केवलज्ञान। सूत्र-८७
अनन्तरसिद्ध केवलज्ञान १५ प्रकार से वर्णित है । यथा-तीर्थसिद्ध, अतीर्थसिद्ध, तीर्थंकरसिद्ध, अतीर्थंकर सिद्ध, स्वयंबुद्धसिद्ध, प्रत्येकबुद्धसिद्ध, बुद्धबोधितसिद्ध, स्त्रीलिंगसिद्ध, पुरुषलिंगसिद्ध, नपुंसकलिंगसिद्ध, स्वलिंग-सिद्ध, अन्यलिंगसिद्ध, गृहिलिंगसिद्ध, एकसिद्ध और अनेकसिद्ध । सूत्र-८८
वह परम्परसिद्ध-केवलज्ञान कितने प्रकार का है ? अनेक प्रकार से है । यथा-अप्रथमसमयसिद्ध, द्विसमयसिद्ध, त्रिसमयसिद्ध, चतुःसमयसिद्ध, यावत् दससमयसिद्ध, संख्यातसमयसिद्ध, असंख्यातसमयसिद्ध
और अनन्तसमयसिद्ध । इस प्रकार परम्परसिद्ध केवलज्ञान का वर्णन है। सूत्र - ८९
संक्षेप में वह चार प्रकार का है-द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से । केवलज्ञानी द्रव्य से सर्वद्रव्यों को, क्षेत्र से सर्व लोकालोक क्षेत्र को, काल से भूत, वर्तमान और भविष्यत् तीनों कालों को और भाव से सर्व द्रव्यों के सर्व भावों-पर्यायों को जानता व देखता है। सूत्र - ९०
केवलज्ञान सम्पूर्ण द्रव्यों को, उत्पाद आदि परिणामों को तथा भाव-सत्ता को अथवा वर्ण, गन्ध, रस आदि को जानने का कारण है । वह अनन्त, शाश्वत तथा अप्रतिपाति है । ऐसा यह केवलज्ञान एक प्रकार का ही है। सूत्र-९१
केवलज्ञान के द्वारा सब पदार्थों को जानकर उनमें जो पदार्थ वर्णन करने योग्य होते हैं, उन्हें तीर्थंकर देव अपने प्रवचनों में प्रतिपादन करते हैं । वह उनका वचनयोग होता है अर्थात् वह अप्रदान द्रव्यश्रुत है । सूत्र - ९२
केवलज्ञान का विषय सम्पूर्ण हुआ और प्रत्यक्ष भी समाप्त हुआ। सूत्र-९३
वह परोक्षज्ञान कितने प्रकार का है ? दो प्रकार का । यथा-आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान । जहाँ मुनि दीपरत्नसागर कृत्-(नन्दी) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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