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वक्तव्य
बि से उत्तराध्ययन सूत्र का वांचन किया था तभी से इस सुत्र
" के प्रति हृदय में एक विशेष आकर्षण पैदा हुआ था और ज्यों २ अन्य सूत्रों एवं ग्रथों का अभ्यास होता गया त्यों २ वह भाकर्षण भिन्न २ रूप में परिणत होता गया। उसके बाद तो इतर दर्शनों के, उसमें भी खास करके वैशेषिक, नैयायिक, सांख्य, वेदान्त इत्यादि दर्शनों के साहित्य के अभ्यास एवं निरीक्षण करने का समय मिलता गया तथा इनके सिवाय अन्य प्रचलित मत, मतान्तर, दर्शन, बाद इन सब का अवलोकन जो कुछ भी होता गया क्यों २ जैनदर्शन के प्रति कुछ विशेष मात्रा में अभिरुचि उत्तरोत्तर बढ़ती गई और ऐसा होना स्वाभाविक ही था।
सबसे पीछे बौद्ध दर्शन के मौलिक ग्रंथ पढ़ने को मिले। उनका जैन साहित्य के साथ तुलनात्मक अभ्यास करने में बडा ही रस भाया । बौद्ध साहित्य पढ़ जाने के बाद जैन साहित्य के प्रति आदर-माव विशेषतम हुआ ही, किन्तु उसकी परिणति पहिले की अपेक्षा किसी दूसरे ही रूप में हुई। 'परंपरागत संस्कार से, जैनदर्शन यह विश्वव्यापी दर्शन है-ऐसा मान रक्सा था उसके बदले जैनदर्शन की विश्वव्यापकता किस तरह और क्यों हैं इन प्रश्नों पर विशिष्ट चिन्तवन करने का जो अवसर मिला। वह 'तो बौद्ध धर्म के विशिष्ट वांधन के बाद ही और उसी वांचन का यह परिणाम है कि जैनधर्म पर पहिले की अपेक्षा भोर भी श्रद्धा भक्ति वढ़ गई; किन्तु इसकी दिशा' कुछ दूसरी, ही तरफ रही और तब से यह निश्चय होता मया कि इन सब को तुलनात्मक दृष्टि से विचार कर उन विशेषताओं को प्रकाश में लाना चाहिये ।,