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इस प्रकार अपनी तीव्र हार्दिक इच्छा को तत्काल ही फलवती होते देखकर मुझे संतोष तो हुवा ही, परन्तु उसके साथ ही साथ मेरे संकल्प बल को भी सर्वोत्तम प्रोत्साहन मिला और इस दिशा में अधिकाधिक प्रयत्न करने का इस संस्था के द्वारा एक उत्तम सुअवसर मिला और उससे मुझे जो साल्हाद हुआ उसका वर्णन निर्जीव शब्दों द्वारा कैसे किया जा सकता है ?
जब से श्री उत्तराध्ययन सूत्र का गुजराती अनुवाद प्रकाशित हुआ है तब से केवल ३ मासों में इसकी दो आवृत्तियां हाथों हाथ बिक गई हैं । जैन एवं जैनेतर विद्वानों ने इस प्रकाशन की मुक्तकंठ से भूरि २ प्रशंसा की है और दिन पर दिन मांग हो रही है इससे सिद्ध होता है कि इस ग्रंथ को समाज ने खूब ही अपनाया है और इसी तरह की दूसरी उपयोगी आवृत्तियां यदि प्रकाशित की जांय तो वह समाज एवं धर्म, दोनों के लिये हितकर होगा - ऐसी भाशा है ।
हिन्दी भाषाभाषी जैन समाज भी इन प्रकाशनों का लाभ ले सके इस शुभ उद्देश्य से श्री स्थानकवासी जैन कान्फरेन्स के जनरल सेक्रेटरीज़ श्रीमान् सेठ वेलजी लखमशी नप्पु तथा श्रीमान् चिमनलाल चकूभाई सोलिसीटर ने महावीर साहित्य कार्यालय की अनुमति से "श्री हंसराज जिनागम विद्या प्रचारक फंड समिति” की तरफ से इस ग्रंथ को हिन्दी में अनुवादित कराकर प्रकाशित किया है और मुझे पूर्ण आशा है. कि हिन्दी भाषी बन्धु इसका पूर्ण रूप से लाभ लेंगे ।
आज हम देखते हैं कि उत्तराध्ययन सूत्र की दीपिका, टीका, अवचूरी निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि, गुजराती तथा हिन्दी टीकाएं भिन्न २ संस्थाओं की तरफ से एक खासी संख्या में प्रकाशित हो चुकी हैं; तो फिर इस उत्तराध्ययन के अनुवाद में खास विशेषता क्या है ? इस प्रश्न का सीधा तथा सरल एक जवाब तो यही है कि उन सब के होने पर भी जैनवाङ्मय से जैनेतर वर्ग बिलकुल अजान ही बना हुआ है इतना ही नहीं, किन्तु स्वयं,
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