Book Title: Agam 42 Dashvaikalik Sutra Hindi Anuwad Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar View full book textPage 9
________________ आगम सूत्र ४२, मूलसूत्र-३, 'दशवैकालिक' अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक अध्ययन-४ छह जीवनिकाय सूत्र - ३२ हे आयुष्मन् ! मैंने सुना हैं, उन भगवान् ने कहा-इस निर्ग्रन्थ-प्रवचन में निश्चित ही षड्जीवनिकाय नामक अध्ययन प्रवेदित, सुआख्यात और सुप्रज्ञप्त है । (इस) धर्मप्रज्ञप्ति (जिसमें धर्म की प्ररूपणा है) अध्ययन का पठन मेरे लिए श्रेयस्कर है ? वह 'षड्जीवनिकाय' है- पृथ्वीकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक जीव । शस्त्र-परिणत के सिवाय पृथ्वी सचित्त है, वह अनेक जीवों और पृथक् सत्त्वों वाली है । इसी तरह शस्त्रपरिणत को छोड़ कर अपकाय, अग्निकाय, वायुकाय और वनस्पति सजीव है । वह अनेक जीवों और सत्त्वों वाली है। उसके प्रकार ये हैं - अग्रबीज, मूलबीज, पर्वबीज, स्कन्धबीज, बीजरुह, सम्मूर्छिम तृण और लता | शस्त्र - परिणत के सिवाय (ये) वनस्पतिकायिक जीव बीज-पर्यन्त सचेतन कहे गए हैं। वे अनेक जीव हैं और पृथक् सत्त्वों वाले हैं। (स्थावरकाय के) अन्तर ये जो अनेक प्रकार के त्रस प्राणी हैं, वे इस प्रकार हैं - अण्डज, पोतज, रसज, संस्वेदज, सम्मूर्छिम, उद्भिज्ज (और) औपपातिक । जिन किन्हीं प्राणियों में अभिक्रमण, प्रतिक्रमण, संकुचित होना, शब्द करना, भ्रमण करना, त्रस्त होना, भागना आदि क्रियाएँ हों तथा जो आगति और गति के विज्ञाता हो, (वे सब त्रस हैं ।) जो कीट और पतंगे हैं, तथा जो कुन्थु और पिपीलिका हैं, वे सब द्वीन्द्रिय, सब त्रीन्द्रिय तथा समस्त पंचेन्द्रिय जीव तथा-समस्त तिर्यञ्चयोनिक, समस्त नारक, समस्त मनुष्य, समस्त देव और समस्त प्राणी परम सुख-स्वभाववाले हैं । यह छट्ठा जीवनिकाय त्रसकाय कहलाता है। सूत्र -३३ 'इन छह जीवनिकायों के प्रति स्वयं दण्ड-समारम्भ न करे, दूसरों से दण्ड-समारम्भ न करावे और दण्डसमारम्भ करनेवाले अन्य का अनुमोदन भी न करे।' भंते ! मैं यावज्जीवन के लिए तीन करण एवं तीन योग से आरंभ न करूंगा, न कराउंगा, करनेवाले का न अनुमोदन करुंगा। भंते ! मैं उस (अतीत में किये हुए) दण्डसमारम्भ से प्रतिक्रमण करता हूँ, उस की निन्दा करता हुं, गर्दा करता हुं और उस का व्युत्सर्ग करता हु | भंते ! मैं प्रथम महाव्रत (-पालन) के लिए उपस्थित हुआ हूँ। जिस में सर्वप्रकार के प्राणातिपात से विरत होना होता है। सूत्र - ३४ भंते ! पहले महाव्रत में प्राणातिपात से विरमण करना होता है । हे भदन्त मैं सर्व प्रकार के प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हुं । सूक्ष्म बादर त्रस स्थावर कीसी का भि अतिपात न करना, न करवाना, अनुमोदन करना। यह प्रतिज्ञा यावज्जीवन के लिए मैं तीन योग-तीन करण से करता हूं। सूत्र - ३५ भंते ! द्वीतीय महाव्रत में मृषावाद के विरमण होता है। भंते ! मैं सब प्रकार के मृषावाद का प्रत्याख्यान करता हूँ। क्रोध से, लोभ से, लोभ से, भय से या हास्य से, स्वयं असत्य न बोलना, दूसरों से नहीं बुलवाना और दूसरे वालों का अनुमोदन न करना; इस प्रकार की प्रतिज्ञा मैं यावज्जीवन के लिए, तीन करण, तीन योग से करता हूँ। (अर्थात्) मैं मन से, वचन से, काया से मृषावाद स्वयं नहीं करूंगा, न कराऊंगा और करने वाले का अनुमोदन न करूंगा । भंते ! मैं उस से निवृत्त होता हूँ; निन्दा करता हूँ; गर्दा करता हूँ और (मृषावाद से युक्त) आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ। भंते! मै द्वितीय महाव्रत के लिए उपस्थित हुआ हूँ, (जिसमें) सर्व-मृषावाद से विरत होना होता है सूत्र -३६ भंते ! तृतीय महाव्रत में अदत्तादान से विरति होती है । भंते ! मैं सब प्रकार के अदत्तादान का प्रत्याख्यान मुनि दीपरत्नसागर कृत् (दशवैकालिक) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद Page 9Page Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48