Book Title: Agam 42 Dashvaikalik Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ४२, मूलसूत्र-३, 'दशवैकालिक'
अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र -४६७
इसी प्रकार अल्पवयस्क या वृद्ध को, स्त्री या पुरुष को, अथवा प्रव्रजित अथवा गृहस्थ को उसके दुश्चरित की याद दिला कर जो साधक न तो उसकी हीलना करता है और न ही झिड़कता है तथा जो अहंकार और क्रोध का त्याग करता है, वही पूज्य होता है। सूत्र - ४६८
(अभ्युत्थान आदि द्वारा) सम्मानित किये गए आचार्य उन साधकों को सतत सम्मानित करते हैं, जैसे(पिता अपनी कन्याओं को) यत्नपूर्वक योग्य कुल में स्थापित करते हैं, वैसे ही (आचार्य अपने शिष्यों को सुपथ में) स्थापित करते हैं; उन सम्मानार्ह, तपस्वी, जितेन्द्रिय, सत्यपरायण आचार्यों को जो सम्मानते है, वह पूज्य होता है। सूत्र - ४६९
जो मेधावी मुनि उन गुण-सागर गुरुओं के सुभाषित सुनकर, तदनुसार आचरण करता है; जो पंच महाव्रतों में रत, तीन गुप्तियों से गुप्त, चारों कषायों से रहित हो जाता है, वह पूज्य होता है। सूत्र - ४७०
जिन-(प्ररूपित) सिद्धान्त में निपुण, अभिगम में कुशल मुनि इस लोक में सतत गुरु की परिचर्या करके पूर्वकृत कर्म को क्षय कर भास्वर अतुल सिद्धि गति को प्राप्त करता है। -ऐसा मैं कहता हूँ।
अध्ययन-९- उद्देशक-४ सूत्र - ४७१-४७२
आयुष्मन् ! मैंने सुना है, उन भगवान् ने कहा है-स्थविर भगवंतों ने विनयसमाधि के चार स्थान बताये हैंविनय समाधि, श्रुतसमाधि, तपःसमाधि और आचारसमाधि । जो जितेन्द्रिय होते हैं, वे पण्डित अपनी आत्मा को इन चार स्थानों में निरत रखते हैं। सूत्र - ४७३-४७५
विनयसमाधि चार प्रकार की होती है । जैसे-अनुशासित किया हुआ (शिष्य) आचार्य के अनुशासन-वचनों को सुनना चाहता है; अनुशासन को सम्यक् प्रकार से स्वीकारता है; शास्त्र की आराधना करता है; और वह आत्मप्रशंसक नहीं होता । इस (विषय) में श्लोक भी है-आत्मार्थी मुनि हितानुशासन सुनने की इच्छा करता है; शुश्रूषा करता है, उस के अनुकूल आचरण करता है; विनयसमाधि में (प्रवीण हूँ) ऐसे उन्माद से उन्मत्त नहीं होता। सूत्र - ४७६-४७८
श्रुतसमाधि चार प्रकार की होती है; जैसे कि-'मुझे श्रुत प्राप्त होगा,' 'मैं एकाग्रचित्त हो जाऊंगा,' 'मैं अपनी आत्मा को स्व-भाव में स्थापित करूँगा', एवं 'मैं दूसरों को स्थापित करूँगा' इन चारों कारणो से अध्ययन करना चाहिए । इस में एक श्लोक है-प्रतिदिन शास्त्राध्ययन के द्वारा ज्ञान होता है, चित्त एकाग्र हो जाता है, स्थिति होती है और दूसरों को स्थिर करता है तथा अनेक प्रकार के श्रुत का अध्ययन कर श्रुतसमाधि में रत हो जाता है। सूत्र -४७९-४८०
तपःसमाधि चार प्रकार की होती है । यथा-इहलोक के, परलोक के, कीर्ति, वर्ण, शब्द और श्लोक के लिए, निर्जरा के अतिरिक्त अन्य किसी भी उद्देश्य से, चारों कारणों से तप नहीं करना चाहिए, सदैव विविध गुणों वाले तप में (जो साधक) रत रहता है, पौद्गलिक प्रतिफल की आशा नहीं रखता; कर्मनिर्जरार्थी होता है; वह तप के द्वारा पूर्वकृत कर्मों का क्षय कर डालता है और सदैव तप:समाधि से युक्त रहता है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (दशवैकालिक) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
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