Book Title: Agam 42 Dashvaikalik Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ४२, मूलसूत्र-३, 'दशवैकालिक'
अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक अध्ययन-१०- स भिक्षु सूत्र -४८५
जो तीर्थंकर भगवान् की आज्ञा से प्रव्रजित होकर निर्ग्रन्थ-प्रवचन में सदा समाहितचित्त रहता है; स्त्रियों के वशीभूत नहीं होता, वमन किये हुए (विषयभोगों) को पुनः नहीं सेवन करता; वह भिक्षु होता है। सूत्र - ४८६
जो पृथ्वी को नहीं खोदता, नहीं खुदवाता, सचित्त जल नहीं पीता और न पिलाता है, अग्नि को न जलाता है और न जलवाता है, वह भिक्षु है। सूत्र - ४८७
जो वायुव्यंजक से हवा नहीं करता और न करवाता है, हरित का छेदन नहीं करता और न कराता है, बीजों का सदा विवर्जन करता हुआ सचित्त का आहार नहीं करता, वह भिक्षु है। सूत्र - ४८८
(भोजन बनाने में) पृथ्वी, तृण और काष्ठ में आश्रित रहे हुए त्रस और स्थावर जीवों का वध होता है । इसलिए जो औद्देशिक का उपभोग नहीं करता तथा जो स्वयं नहीं पकाता और न पकवाता है, वह भिक्षु है। सूत्र - ४८९
जो ज्ञातपुत्र (महावीर) के वचनों में रुचि (श्रद्धा) रख कर षट्कायिक जीवों (सर्वजीवों) को आत्मवत् मानता है, जो पांच महाव्रतों का पालन करता है, जो पांच (हिंसादि) आस्रवों का संवरण () करता है, वह भिक्षु है सूत्र - ४९०
जो चार कषायों का वमन करता है, तीर्थंकरो के प्रवचनों में सदा ध्रुवयोगी रहता है, अधन है तथा सोने और चाँदी से स्वयं मुक्त है, गृहस्थों का योग नहीं करता, वही भिक्षु है । सूत्र -४९१
जिसकी दृष्टि सम्यक् है, जो सदा अमूढ है, ज्ञान, तप और संयम में आस्थावान् है तथा तपस्या से पुराने पाप कर्मों को नष्ट करता है और मन-वचन-काया से सुसंवृत है, वही भिक्षु है। सूत्र - ४९२
पूर्वोक्त एषणाविधि से विविध अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य को प्राप्त कर-'यह कल या परसों काम आएगा,' इस विचार से जो संचित न करता है और न कराता है, वह भिक्षु है। सूत्र - ४९३
पूर्वोक्त प्रकार से विविध अशन आदि आहार को पाकर जो अपने साधर्मिक साधुओं को निमन्त्रित करके खाता है तथा भोजन करके स्वाध्याय में रत रहता है, वही भिक्षु है। सूत्र - ४९४
जो कलह उत्पन्न करने वाली कथा नहीं करता और न कोप करता है, जिसकी इन्द्रियाँ निभृत रहती हैं, प्रशान्त रहता है । संयम में ध्रुवयोगी है, उपशान्त रहता है, जो उचित कार्य का अनादर नहीं करता, वही भिक्षु है सूत्र - ४९५
जो कांटे के समान चुभने वाले आक्रोश-वचनों, प्रहारों, तर्जनाओं और अतीव भयोत्पादक अट्टहासों को तथा सुख-दुःख को समभावपूर्वक सहन करता है; वही भिक्षु है ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (दशवैकालिक) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
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