Book Title: Agam 42 Dashvaikalik Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 23
________________ अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक आगम सूत्र ४२, मूलसूत्र-३, 'दशवैकालिक' अध्ययन-६-महाचारकथा सूत्र - २२६-२२७ ज्ञान और दर्शन से सम्पन्न, संयम और तप में रत, आगम-सम्पदा से युक्त गणिवर्य-आचार्य को उद्यान में समवसृत देखकर राजा और राजमंत्री, ब्राह्मण और क्षत्रिय निश्चलात्मा होकर पूछते हैं - हे भगवान् ! आप का आचार - गोचर कैसा है ? सूत्र - २२८-२२९ तब वे शान्त, दान्त, सर्वप्राणियों के लिए सुखावह, ग्रहण और आसेवन, शिक्षाओं से समायुक्त और परम विचक्षण गणी उन्हें कहते हैं - कि धर्म के प्रयोजनभूत मोक्ष की कामना वाले निर्ग्रन्थों के भीम, दुरधिष्ठित और सकल आचार-गोचर मुझसे सुनो। सूत्र - २३०-२३२ जो निर्ग्रन्थाचार लोक में अत्यन्त दुश्चर है, इस प्रकार के श्रेष्ठ आचार अन्यत्र कहीं नहीं है | सर्वोच्च स्थान के भागी साधुओं का ऐसा आचार अन्य मत में न अतीत में था, न ही भविष्य में होगा । बालक हो या वृद्ध, अस्वस्थ हो या स्वस्थ, को जिन गुणों का पालन अखण्ड और अस्फुटित रूप से करना चाहिए, वे गुण जिस प्रकार हैं, उसी प्रकार मुझ से सुनो । उसके अठारह स्थान हैं । जो अज्ञ साधु इन अठारह स्थानों में से किसी एक का भी विराधन करता है, वह निर्ग्रन्थता से भ्रष्ट हो जाता है। सूत्र - २३३-२३५ प्रथम स्थान अहिंसा का है, अहिंसा को सूक्ष्मरूप से देखी है । सर्वजीवों के प्रति संयम रखना अहिंसा है। लोक में जितने भी त्रस अथवा स्थावर प्राणी है; साधु या साध्वी, जानते या अजानते, उनका हनन न करे और न ही कराए; अनुमोदना भी न करे । सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना नहीं । इसलिए निर्ग्रन्थ साधु प्राणिवध को घोर जानकर परित्याग करते हैं सूत्र - २३६-२३७ अपने लिए या दूसरों के लिए, क्रोध से या भय से हिंसाकारक और असत्य न बोले, न ही बुलवाए और न अनुमोदन करे । लोक में समस्त साधुओं द्वारा मृषावाद गर्हित है और वह प्राणियों के लिए अविश्वसनीय है । अतः निर्ग्रन्थ मृषावाद का पूर्णरूप से परित्याग कर दे। सूत्र - २३८-२३९ संयमी साधु-साध्वी, पदार्थ सचेतन हो या अचेतन, अल्प हो या बहुत, यहाँ तक कि दन्तशोधन मात्र भी हो, जिस गृहस्थ के अवग्रह में हो; उससे याचना किये बिना स्वयं ग्रहण नहीं करते, दूसरों से ग्रहण नहीं कराते और न ग्रहण करने वाला का अनुमोदन करते हैं। सूत्र - २४०-२४१ अब्रह्मचर्य लोकमें घोर, प्रमादजनक, दुराचरित है । संयमभंग करनेवाले स्थानोंसे दूर रहनेवाले मुनि उसका आचरण नहीं करते। यह अधर्म का मूल है। महादोषों का पुंज है। इसीलिए निर्ग्रन्थ मैथुन संसर्ग का त्याग करते है। सूत्र - २४२-२४६ जो ज्ञानपुत्र के वचनों में रत हैं, वे बिडलवण, सामुद्रिक लवण, तैल, घृत, द्रव गुड़ आदि पदार्थों का संग्रह करना नहीं चाहते । यह संग्रह लोभ का ही विघ्नकारी अनुस्पर्श है, ऐसा मैं मानता हूँ | जो साधु कदाचित् पदार्थ की सन्निधि की कामना करता है, वह गृहस्थ है, प्रव्रजित नहीं है। मुनि दीपरत्नसागर कृत् (दशवैकालिक) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद Page 23

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