Book Title: Agam 42 Dashvaikalik Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 32
________________ आगम सूत्र ४२, मूलसूत्र-३, 'दशवैकालिक' अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र - ३६७-३६८ संयमी साधु सदैव यथासमय उपयोगपूर्वक पात्र, कम्बल, शय्या, उच्चारभूमि, संस्तारक अथवा आसन का प्रतिलेखन करे । उच्चार, प्रस्रवण, कफ, नाक का मैल और पसीना आदि डालने के लिए प्रासुक भूमि का प्रतिलेखन करके उनका (यतनापूर्वक) परिष्ठापन करे । सूत्र - ३६९ पानी या भोजन के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश करके साधु यतना से खड़ा रहे, परिमित बोले और (वहाँ के) रूप में मन को डांवाडोल न करे । सूत्र - ३७०-३७१ भिक्षु कानों से बहुत कुछ सुनता है तथा आँखों से बहुत-से रूप (या दृश्य) देखता है किन्तु सब देखते हुए और सुने हुए को कह देना उचित नहीं । यदि सुनी या देखी हुई (घटना औपघातिक हो तो नहीं कहनी तथा किसी भी उपाय से गृहस्थोचित आचरण नहीं करना)। सूत्र - ३७२ पूछने पर अथवा बिना पूछे भी यह सरस (भोजन) है और यह नीरस है, यह (ग्राम आदि) अच्छा है और यह बुरा है, अथवा मिला या न मिला; यह भी न कहे। सूत्र - ३७३-३७६ भोजन में गृद्ध न हो, व्यर्थ न बोलता हुआ उञ्छ भिक्षा ले । (वह) अप्रासुक, क्रीत, औद्देशिक और आहृत आहार का भी उपभोग न करे । अणुमात्र भी सन्निधि न करे, सदैव मुधाजीवी असम्बद्ध और जनपद के निश्रित रहे, रूक्षवृत्ति, सुसन्तुष्ट, अल्प इच्छावाला और थोड़े से आहार से तृप्त होने वाला हो । वह जिनप्रवचन को सुन कर आसुरत्व को प्राप्त न हो । कानों के लिए सुखकर शब्दों में रागभाव स्थापन न करे, दारुण और कर्कश स्पर्श को शरीर से (समभावपूर्वक) सहन करे। सूत्र - ३७७ क्षुधा, पिपासा, दुःशय्या, शीत, उष्ण, अरति और भय को (मुनि) अव्यथित होकर सहन करे; (क्योंकि) देह में उत्पन्न दुःख को समभाव से सहना महाफलरूप होता है। सूत्र - ३७८ सूर्य के अस्त हो जाने पर और सूर्य उदय न हो जाए तब तक सब प्रकार के आहारादि पदार्थों की मन से भी इच्छा न करे। सूत्र - ३७९-३८२ साधु तनतनाहट न करे, चपलता न करे, अल्पभाषी, मितभोजी और उदर का दमन करने वाला हो । थोड़ा पाकर निन्दा न करे । किसी जीव का तिरस्कार न करे । उत्कर्ष भी प्रकट न करे । श्रुत, लाभ, जाति, तपस्विता और बुद्धि से मद न करे । जानते हुए या अनजाने अधार्मिक कृत्य हो जाए तो तुरन्त उससे अपने आपको रोक ले तथा दूसरी बार वह कार्य न करे । अनाचार का सेवन करके उसे गुरु के समक्ष न छिपाए और न ही सर्वथा अपलाप करे; किन्तु सदा पवित्र प्रकट भाव धारण करनेवाला, असंसक्त एवं जितेन्द्रिय रहे। सूत्र - ३८३ मुनि महान् आत्मा आचार्य के वचन को सफल करे । वह उनके कथन को भलीभाँति ग्रहण करके कार्य द्वारा सम्पन्न करे। मुनि दीपरत्नसागर कृत् (दशवैकालिक) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद Page 32

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