Book Title: Agam 42 Dashvaikalik Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 19
________________ आगम सूत्र ४२, मूलसूत्र-३, 'दशवैकालिक' अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक शरीर-धारण करने के लिए निरवद्य वृत्ति का उपदेश दिया है । नमस्कार-सूत्र के द्वारा पूर्ण करके जिनसंस्तव करे, फिर स्वाध्याय का प्रारम्भ करे, क्षणभर विश्राम ले, कर्म-निर्जरा के लाभ का अभिलाषी मुनि इस हितकर अर्थ का चिन्तन करे - "यदि कोई भी साधु मुझ पर अनुग्रह करें तो मैं संसार-समुद्र से पार हो जाउं । सूत्र - १७०-१७४ वह प्रीतिभाव से साधुओं को यथाक्रम से निमंत्रण करे, यदि उन में से कोई भोजन करना चाहें तो उनके साथ भोजन करे । यदि कोई आहार लेना न चाहे, तो वह अकेला ही प्रकाशयुक्त पात्र में, नीचे न गिरता हुआ यतनापूर्वक भोजन करे । अन्य के लिए बना हुआ, विधि से उपलब्ध जो तिक्त, कडुआ, कसैला, अम्ल, मधुर या लवण हो, संयमी साधु उसे मधु-धृत की तरह सन्तोष के साथ खाए । मुधाजीवी भिक्षु प्राप्त किया हुआ आहार अरस हो या सरस, व्यञ्जनादि युक्त हो अथवा रहित, आर्द्र हो, या शुष्क, बेर के चून का भोजन हो अथवा कुलथ या उड़द के बाकले का, उसकी अवहेलना न करे, किन्तु मुधाजीवी साधु, मुघालब्ध एवं प्रासुक आहार का, अल्प हो या बहुत; दोषों को छोड़ कर समभावपूर्वक सेवन करे सूत्र - १७५ मुधादायी दुर्लभ हैं और मुधाजीवी भी दुर्लभ हैं । मुधादायी और मुधाजीवी, दोनों सुगति को प्राप्त होते हैं । - ऐसा कहता हूँ। अध्ययन-५ - उद्देशक - २ सूत्र - १७६ सम्यक् यत्नवान् साधु लेपमात्र-पर्यन्त पात्र को अंगुलि से पोंछ कर सुगन्ध हो या दुर्गन्धयुक्त, सब खा ले। सूत्र - १७७-१७८ उपाश्रय में या स्वाध्यायभूमि में बैठा हुआ, अथवा गौचरी के लिए गया हुआ मुनि अपर्याप्त खाद्य-पदार्थ खाकर यदि उस से निर्वाह न हो सके तो कारण उत्पन्न होने पर पूर्वोक्त विधि से और उत्तर विधि से भक्त-पान की गवेषणा करे। सूत्र - १७९-१८१ भिक्षु भिक्षा काल में निकले और समय पर ही वापस लौटे अकाल को वर्ज कर जो कार्य जिस समय उचित हो, उसे उसी समय करे । हे मुनि ! तुम अकाल में जाते हो, काल का प्रतिलेख नहीं करते। भिक्षा न मिलने पर तुम अपने को क्षुब्ध करते हो और सन्निवेश की निन्दा करते हो। भिक्षु समय होने पर भिक्षाटन और पुरुषार्थ करे। भिक्षा प्राप्त नहीं हुई, इसका शोक न करे किन्तु तप हो गया, ऐसा विचार कर क्षुधा परीषह सहन करे । सूत्र - १८२ इसी प्रकार भोजनार्थ एकत्रित हुए नाना प्रकार के प्राणी दीखें तो वह उनके सम्मुख न जाए, किन्तु यतनापूर्वक गमन करे। सूत्र - १८३-१८८ गोचरी के लिये गया हुआ संयमी कहीं भी न बैठे और न खड़ा रह कर भी धर्म-कथा का प्रबन्ध करे, अर्गला, परिघ, द्वार एवं कपाट का सहारा लेकर खड़ा न रहे, भोजन अथवा पानी के लिए आते हुए या गये हुए श्रमण, ब्राह्मण, कृपण अथवा वनीपक को लांघ कर प्रवेश न करे और न आँखों के सामने खड़ा रहे । किन्तु एकान्त में जा कर वहाँ खड़ा हो जाए। मुनि दीपरत्नसागर कृत् (दशवैकालिक) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद Page 19

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