Book Title: Agam 42 Dashvaikalik Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 20
________________ आगम सूत्र ४२, मूलसूत्र-३, 'दशवैकालिक' अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक उन भिक्षाचरों को लांघ कर घर में प्रवेश करने पर उस बनीपक, दाता अथवा दोनों को अप्रीति उत्पन्न हो सकती है, अथवा प्रवचन की लघुता होती है । किन्तु गृहस्वामी द्वारा उन भिक्षाचारो को देने का निषेध कर देने पर अथवा दे देने पर तथा वहाँ से उन याचकों के हट जाने पर संयमी साधु उस घर में प्रवेश करे। सूत्र - १८९-१९२ उत्पल, पद्म, कुमुद या मालती अथवा अन्य किसी सचित्त पुष्प का छेदन करके, सम्मर्दन कर भिक्षा देने लगे तो वह भक्त-पान संमयी साधु के लिए अकल्पनीय है । इसलिए मुनि निषेध कर दे कि इस प्रकार का आहार मेरे लिए अग्राह्य है। सूत्र - १९३-१९५ अनिवृत कमलकन्द, पलाशकन्द, कुमुदनाल, उत्पलनाल, कमल के तन्तु, सरसों की नाल, अपक्व इक्षुखण्ड, वृक्ष, तृण और दूसरी हरी वनस्पति का कच्चा नया प्रवाल - जिसके बीज न पके हों, ऐसी नई अथवा एक बार भूनी हुई कच्ची फली को साधु निषेध कर दे कि इस प्रकार का आहार मैं ग्रहण नहीं करता। सूत्र - १९६-१९९ इसी प्रकार बिना उबाला हुआ बेर, वंश-शरीर, काश्यपनालिका तथा अपक्व तिलपपड़ी और कदम्ब का फल चाहिए । चावलों का पिष्ट, विकृत धोवन, निवृत जल, तिलपिष्ट, पोइ-साग और सरसों की खली, कपित्थ, बिजौरा, मूला और मूले के कन्द के टुकड़े, मन से भी इच्छा न करे । फलों का चूर्ण, बीजों का चूर्ण, बिभीतक तथा प्रियालफल, इन्हें अपक्व जान कर छोड़ दे। सूत्र - २०० भिक्षु समुदान भिक्षाचर्या करे। (वह) उच्च और नीच सभी कुलों में जाए, नीचकुल को छोड़ कर उच्चकुल में न जाए। सूत्र - २०१ ___ पण्डित साधु दीनता से रहित होकर भिक्षा की एषणा करे । भिक्षा न मिले तो विषाद न करे । सरस भोजन में अमूर्च्छित रहे । मात्रा को जानने वाला मुनि एषणा में रत रहे। सूत्र - २०२ गृहस्थ (पर) के घर में अनेक प्रकार का प्रचुर खाद्य तथा स्वाद्य आहार होता है; किन्तु न देने पर पण्डित मुनि कोप न करे; परन्तु ऐसा विचार करे कि यह गृहस्थ है, दे या न दे, इसकी इच्छा । सूत्र - २०३ संयमी साधु प्रत्यक्ष दीखते हुए भी शयन, आसन, वस्त्र, भक्त और पान, न देने वाले पर क्रोध न करे। सूत्र - २०४ स्त्री या पुरुष, बालक या वृद्ध वन्दना कर रहा हो, तो उससे किसी प्रकार की याचना न करे तथा आहार न दे तो उसे कठोर वचन भी न कहे। सूत्र - २०५ जो वन्दना न करे, उस पर कोप न करे, वन्दना करे तो उत्कर्ष न लाए - इस प्रकार भगवदाज्ञा का अन्वेषण करने वाले मुनि का श्रामण्य अखण्ड रहता है। मुनि दीपरत्नसागर कृत् (दशवैकालिक) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद Page 20

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