Book Title: Agam 42 Dashvaikalik Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ४२, मूलसूत्र-३, 'दशवैकालिक'
अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक करता हूँ | जैसे कि-गाँव में, नगर में या अरण्य में अल्प या बहुत, सूक्ष्म या स्थूल, सचित्त हो या अचित्त, अदत्त वस्तु का स्वयं ग्रहण न करना, दूसरों से ग्रहण न कराना और ग्रहण करने वाले किसी का अनुमोदन न करना; यावज्जीवन के लिए तीन करण, तीन योग से; मैं मन से, वचन से, काया से स्वयं (अदत्त वस्तु को ग्रहण) नहीं करूंगा, न ही दूसरों से कराऊगा और ग्रहण करने वाले अन्य किसी का अनुमोदन भी नहीं करूंगा | भंते ! मैं तृतीय महाव्रत के लिए उपस्थित हुआ हूँ, (जिसमें) सर्व-अदत्तादान से विरत होना होता है। सूत्र - ३७
चतुर्थ महाव्रत में मैथुन से निवृत होना होता है । मैं सब प्रकार के मैथुन का प्रत्याख्यान करता हूँ। जैसे कि देव-सम्बन्धी, मनुष्य-सम्बन्धि अथवा तिर्यञ्च-सम्बन्धी मैथुन का स्वयं सेवन न करना, दूसरों से न कराना और करनेवालों का अनुमोदन न करना; यावजीवन के लिए, तीन करण तीन योग से मैं मन से, वचन से, काया से स्वयं मैथुन-सेवन न करूंगा, नहीं कराऊंगा और नहीं करनेवाले का अनुमोदन करूंगा | भंते ! मैं इससे निवृत्त होता हूँ । निन्दा करता हूँ, गर्दा करता हूँ और मैथुनसेवनयुक्त आत्मा व्युत्सर्ग करता हूँ । भंते ! मैं चतुर्थ महाव्रत के लिए उपस्थित हुआ हूँ, जिसमें सब प्रकार के मैथुन-सेवन से विरत होना होता है। सूत्र - ३८
पंचम महाव्रत में परिग्रह से विरत होना होता है | "भंते ! मैं सब प्रकार के परिग्रह का प्रत्याख्यान करता हूँ, जैसे कि-गाँव में, नगर में या अरण्य में, अल्प या बहुत, सूक्ष्म या स्थूल, सचित्त या अचित्त परिग्रह का परिग्रहण स्वयं न करे, दूसरों से नहीं कराए और न ही करनेवाले का अनुमोदन करे; यावज्जीवन के लिए, तीन करण, तीन योग से मैं मन से, वचन से, काया से परिग्रह-ग्रहण नहीं करूंगा, न कराऊंगा और न करने वाले का अनुमोदन करूंगा । भंते ! मैं उससे से निवृत्त होता हूँ, गर्दा करता हूँ और परिग्रह-युक्त आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ | भंते ! मैं पंचम-महाव्रत के लिए उपस्थित हूँ, (जिसमें) सब प्रकार के परिग्रह से विरत होना होता है। सूत्र - ३९
भंते ! छटे व्रत में रात्रिभोजन से निवृत्त होना होता है। भंते ! मैं सब प्रकार के रात्रिभोजन का प्रत्याख्यान करता हूँ । जैसे कि-अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का रात्रि में स्वयं उपभोग न करे, दूसरों को न कराए और न करनेवाले का अनुमोदन करे, यावज्जीवन के लिए, तीन करण, तीन योग से मैं मन से, वचन से काया से, स्वयं रात्रिभोजन नहीं करूंगा; न कराऊंगा और न अनुमोदन करूंगा । भंते ! मैं उससे निवृत्त होता हूँ, उनकी निन्दा करता हूँ, गर्दी करता हूँ और रात्रिभोजनयुक्त आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ। भंते ! मैं छठे व्रत के लिए उपस्थित हुआ हूँ, जिसमें सब प्रकार के रात्रि-भोजन से विरत होना होता है। सूत्र - ४०
इस प्रकार मैं इन पांच महाव्रतो और रात्रिभोजन-विरमण रूप छठे व्रत को आत्महित के लिए अंगीकार करके विचरण करता हूँ। सूत्र -४१
भिक्षु अथवा भिक्षुणी, जो कि संयत है, विरत है, जो पापकर्मों का निरोध और प्रत्याख्यान कर चुका है, दिन में या रात में, एकाकी हो या परिषद् में, सोते अथवा जागते; पृथ्वी, भित्ति, शिला, ढेले को, सचित्त रज से संसृष्ट काय, या वस्त्र को, हाथ, पैर, काष्ठ अथवा काष्ठ खण्ड से, अंगुलि, लोहे की सलाई, शलाकासमूह से, आलेखन, विलेखन, घट्टन और भेदन न करे; दूसरे से न कराए; तथा करने वाले अन्य किसी का अनुमोदन न करे;
भंते ! मैं यावज्जीवन के लिए, तीन करण तीन योग से स्वयं पृथ्वीकाय-विराधना नहीं करूंगा, न कराऊंगा और न करने वाले अन्य किसी का अनुमोदन करूंगा । भंते ! मैं उस से निवृत्त होता हूँ; उसकी निन्दा
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (दशवैकालिक) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
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