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सम्पादकीय
यह निशीथचूणि का चतुर्थ खण्ड है, और अब निशीथचूणि अपने में पूर्ण है। इतने बड़े भीमकाय ग्रन्थ का सम्पादन एवं प्रकाशन इतनी शीघ्रता के साथ पूर्ण होना, वस्तुतः एक श्राश्चर्य है। जिस गति से प्रारम्भ में सम्पादन एवं मुद्रण चल रहे थे, यदि वही गति अन्त तक बनी रहती, तो संभव था, इतना विलम्ब भी न होता। परन्तु कुछ ऐसी विघ्न-परम्परा उपस्थित होती रही कि हम चाहते हुए भी तदनुसार कुछ न कर सके।
निशीथचूणि अद्यावधि कहीं भी मुद्रित नहीं हुई है। यह पहला ही मुद्रण है। अतः सम्पादन से सम्बन्धित सभी प्रकार की सतर्कता रखते हुए भी, हम, और तो क्या, अपनी कल्पना के अनुसार भी सफल नहीं हो सके। कारण यह था कि लिखित पुस्तक-प्रतियाँ अधिकतर अशुद्ध मिलीं, और ताडपत्र की प्रति तो उपलब्ध ही न हो सकी। और सबसे बड़ी बात यह भी थी कि इस प्रकार का सम्पादन-कार्य हमारे लिए पहला ही था, जिसके लिए 'सौरम्मा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः' कहा गया है। प्रस्तु, सम्पादन में त्रुटियां रही हैं, जो हमारे भी ध्यान में हैं, परन्तु, एतदर्थ क्षमायाचना के अतिरिक्त, अब हम अन्य कुछ कर भी तो नहीं सकते।
प्रस्तुत सम्पादन का विद्वजगत् में बड़ा आदर हुअा है । विश्वविद्यालय तथा तत्स्तरीय अन्य सर्वोच्च शिक्षा-संस्थाओं ने अपने पुस्तकालयों के लिए इस ग्रन्थ की प्रतियां मंगाई हैं और अध्ययन के बाद मुक्त भाव से प्रशंसा-पत्र प्रेषित किये हैं। भुवनेश्वर (उड़ीसा) में, अक्टूबर १९५६ में आयोजित 'अखिल भारतीय प्राच्य विद्या-परिषद्' (आल इंडिया ओरिएंटल कान्फ्रेन्स) के बीसवें अधिवेशन के प्राकृत एवं जैन धर्म विभाग के अध्यक्ष डा० सांडेसरा ने भी अपने अध्यक्षीय अभिभाषण में प्रस्तुत सम्पादन को 'नोध-पात्र' गिना है। विद्वान् मुनिवरों ने भी खूब दिल खोलकर इसे सराहा है । हमें प्रसन्नता है कि हमारा यह नगण्य कार्य, साहित्यिक क्षेत्र में उल्लेख. नीय विशिष्ट स्थान प्राम कर सका।
एक बात और भी है । कुछ लोग उक्त प्रकाशन से नाराज भी हुए हैं । क्यों? इसका उत्तर हम क्या दें! हमारा काम एक प्राचीन ग्रन्थ को, जो अबतक भंडारों के जीर्ण-शीर्ण हस्तलेखों की सीमा में ही प्रायः काल-यापन कर रहा था, मात्र, बाहर प्रकाश में लाना था, और वह हमने ला दिया । हमारी दृष्टि सु-विशुद्ध रूप से ज्ञानोपासना की रही है । कोन आचार्य हैं ? किस परम्परा के हैं ? उन्होंने क्या लिखा है ? वह आज के युग में कहाँ तक अनुकूल है या प्रतिकूल ?
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