Book Title: Agam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 04 Sthanakvasi Author(s): Amarmuni, Kanhaiyalal Maharaj Publisher: Amar PublicationsPage 17
________________ सूत्रसंख्या २ विषय सविकार पुरुष तथा नपुंसक का स्वरूप, उसके मध्यस्व आदि चार प्रकार; तत्सम्बन्धित उपाश्रय में रहने से संयम - विराधनादि दोष और उनका प्रायश्चित्त । यदि कारणवश तथाकथित सागारिक उपाश्रय में रहना ही पड़े तो तत्सम्बन्धी यतना और अपवाद निग्रन्थियों के लिए भी सागारिक शय्या सूत्र सम्बन्धी निर्ग्रन्थपरक व्याख्या को ही यत्किचित् परिवर्तन के साथ जान लेने की सूचना सोदक (जलसंयुक्त शय्या का निषेध सोदक शय्या की व्याख्या [ ३ ] जल के शीत, उष्ण और प्रासुक अप्रासुक विषयक चार भङ्ग और तत्सम्बन्धित उपाश्रय में रहने से प्रगीतार्थं को प्रायश्चित्त द्रव्य, क्षेत्र आदि के भेद से प्रासुक की व्याख्या उत्सर्ग तथा अपवाद-सम्वन्धी विस्तृत चर्चा प्रगीतार्थ-विषयक शङ्का समाधान, उत्सर्ग-सूत्र, प्रादि छह प्रकार के सूत्रों तथा देश-सूत्र श्रादि चार प्रकार के सूत्रों का सोदाहरण स्वरूप अपवादसूत्र प्रोत्सर्गिक तथा प्रापवादिक सूत्रों के विषय और उनके स्वस्थान प्रश्नोत्तरी के द्वारा उत्सर्ग और अपवाद का रहस्योद्घाटन अनुज्ञापना आदि त्रिविध यतना का स्वरूप त्रिविध यतना-विषयक प्रगीतार्थ की प्रज्ञानता प्रगीतार्थ-विषयक अनुज्ञापना प्रयतना का स्वरूप प्रगीतार्थ-विषयक स्वपक्ष श्रयतना का स्वरूप प्रगीतार्थ-विषयक परपक्ष प्रयतना का स्वरूप गीतार्थ - विषयक अनुज्ञापना- यतना का स्वरूप गीतार्थ-विषयक स्वपक्ष- यतना का स्वरूप गीतार्थ-विषयक परपक्ष-यतना का स्वरूप जागरिका पर वत्स नरेश की भगिनी जयन्ती श्राविका का उदाहरण, गाथा ५३०६ ] दकतीर की विस्तृत व्याख्या दकतीर पर स्थानादि, यूपकवास भौर प्रतापना करने से प्रायश्चित्त कतीर की सीमा के सम्बन्ध में प्रचलित सात प्रदेशों (मतों) का उल्लेख और उनमें से प्रामाणिक प्रदेशों का निर्णय जलाशय के किनारे खड़े होने, बैठने, सोने और स्वाध्याय आदि करने से लगने वाले अधिकरण आदि दोष एवं उनका स्वरूप Jain Education International गाथाङ्क ५२०३-५२२२ ५२२३-५२२७ ५२२८ ५२२६ ५२३० ५२३१-५२५० ५२३१-५२४३ ५२४४-५२४५ ५२४६-५२५० ५२५१-५३०८ ५२५१ ५२५२-५२५६ ५२६०-५२७१ ५२७२-५२८२ ५२८३-५२८७ ५२८८-५२६६ ५२६७-५३०८ ५३०६-५३५१ ५३०६-५३१० ५३११-५३१२ ५३१३-५३२४ For Private & Personal Use Only पृष्ठाङ्क २४-२८ २८-२६ २६-५७ २६ २६ ३० ३०-३५ ३०-३४ ३४ ३४-३५ ३५-४६ ३५ ३५-३७ ३७-३६ ३६-४१ ४१-४२ ४२-४४ ४४-४६ ४६-५७ ४६ ४६-४७ ४७-५० www.jainelibrary.orgPage Navigation
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