Book Title: Agam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Amar Publications

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Page 10
________________ और उस युग में भी वह कहां तक औचित्य की सीमा में था? हमारे अपने साम्प्रदायिक पक्षबद्ध मनोवृत्ति के व्यक्ति क्या कहेंगे और क्या नहीं? उनसे प्रशंसा प्राप्त होगी अथवा निन्दा ? यह सब सोचना साहित्यकार का काम नहीं है । साहित्यकार का काम है, शुद्ध भाव से ज्ञान-साधना करना। और वह हमने 'यावबुद्धि बलोदयं' की है। बस, अपना कार्य पूरा हुआ। निशीथ-चूणि को हम जैन-साहित्य का, जैन-साहित्य का ही नहीं, भारतीय साहित्य का एक महान् ग्रन्थ मानते हैं । जन-प्राचार का यह शेखर ग्रन्थ है । प्राचार-शास्त्र की गुत्थियों का रहस्योद्घाटन, जैसा इस ग्रन्थ में हुअा है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। भारतीय इतिहास तथा लोक-संस्कृति की प्रकट एवं अप्रकट विपुल सामग्री का तो एक प्रकार से यह विश्व-कोप ही है। इसके अध्ययन के विना, निशीथ-सूत्र एवं अन्य छेद-सूत्र कथमपि बुद्धिगम्य नहीं हो सकते; यह हमाग अधिकार की भाषा में किया जाने वाला सुनिश्चित दावा है, जो किसी के भी मिथ्या प्रचार से झुठलाया नहीं जा सकता । निशीथ-चूणि क्या है, और उसमें ऐसा क्या कुछ है, जो वह पौर्वात्य एवं पाश्चात्य, तथैव जैन एवं जेनेतर सभी विद्वानों के आकर्षण का केन्द्र बनी हई है ? इसके लिए पं० दलसुखभाई मालवणिया (प्राध्यापक-जैन-दर्शन, हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी) की विस्तृत प्रस्तावना 'निशीयः एक अध्ययन' का अवलोकन किया जा सकता है। पण्डित जी ने गम्भीर अथच तलस्पर्शी अध्ययन के साथ जो तत्कालीन ऐतिहासिक स्थिति का विश्लेषण किया है, वह विद्वजगत् को चकित कर देने वाला है। हम यहां इस सम्बन्ध में स्वयं और कुछ लिखकर पुनरुक्ति नहीं करना चाहते । यह ठीक है कि चूणि एक मध्यकालीन प्राचीन कृति है, एक विशेष संप्रदाय एवं परम्परा से सम्बन्धित है, वह उग्र साध्वाचार की अपक्रान्ति के एक विलक्षण मोड़ पर शब्दबद्ध हुई है, उस पर देश एवं काल की बदली हुई परिस्थितियों का भी अनेकविध प्रभाव पड़ा है। ग्रस्तु, चूणि की कुछ बातें ऐसी हैं, जो अटपटी सी है, जैन धर्म की मूल परम्परा से काफी दूर जा पड़ी हैं। परन्तु इस सबप क्या ! पाठक को अपनी बुद्धि का उपयोग करना है, हंस के नीर-क्षीर-विवेक से काम लेना है । किसी भी छद्मस्थ प्राचार्य की सभी बातें पूर्ण रूपेण ग्राह्य हों, एवं सर्वप्रकारेण सभी को मान्य हों; यह तो न कभी हुआ है, और न कभी होगा। “पन्नासमिक्खए धम्म' का उत्तराध्ययनसूत्रीय सन्देश आखिर किस काम आयेगा ! इस सम्बन्ध में हम निशीथचूणि के प्रथम भाग की प्रस्तावना (सन् १९५७) में पहले से ही पाठकों को सतर्क रहने के लिए, वह भी काफी स्पष्टता के साथ, लिख चुके हैं। अस्तु हम समझते हैं, फिर भी जो लोग चूर्णि की तयुगीन कुछ अटपटी बातों को ही अग्रस्थान देकर अनर्गल अपप्रचार कर रहे हैं, वे अपने कलुषित अहं का ही कुप्रदर्शन कर रहे हैं। यदि कोई गुलाब के मोहक एवं सुवासित पुष्प में केवल कटे ही देखता है। यदि कोई निर्मल चन्द्र में मात्र कलंक के ही दर्शन करता है, तो यह उसके 'दोषदृष्टिपरं मनः' का ही दोष कहा जायगा, और क्या ? हाँ, तो गुण-ग्रहण के भाव से निशीथ-णि का अध्ययन करना चाहिए। प्राचार्य जिनदाम ने साधक के मानसिक जगत् की सूक्ष्मताओं का, उतार-चढ़ावों का बड़ी कुशलता के साथ चित्रण किया है । प्राचार की कठोर, कठोरतर एवं कठोरतम चर्या को अग्रस्थान देते हुए उन्होंने विभिन्न परिस्थितियों में दुर्बल साधक को, कथंचित् अपवाद-प्ररूपणा के द्वारा, सर्वथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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