Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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अ० धर्म टीका अ. ८ मू. २३१-२३९ रेवती दुर्भाववर्णनम् ४९३ याए कंसपाईए हिरण्णभरियाए संववहरित्तए ॥२३५॥ तए णं से महासयए समणोवासए जाए अभिगयजीवाजीवे जाव विहरइ ॥२३६॥ तए णं समणे भगवं महावीरे बहिया जणवयविहारं विहरइ ॥२३७॥ तए णं तीसे रेवईए गाहावइणीए अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुंब जाव इमेयारूवे अज्झथिए ५"एवं खलु अहं इमासिं दुवालसण्हं सवत्तीणं विघाएणंनो संचाएमि महासयएणं समणोवासएणं सद्धिं उरालाई माणुस्सयाई भोगभोगाइं भुंजमाणी विहरित्तए, तं सेयं खलु ममं एयाओ जातोऽभिगतजीवाजीवो यावद्विहरति ॥२३५॥ ततः खलु श्रमणो भगवान् महावीरो बहिर्जनपदविहारं विहरति ॥२३७॥ ततः खलु तस्या रेवत्या गाथापत्न्या अन्यदा कदाचित्पूर्वरात्रापरत्रकालसमये कुटुम्ब-यावद्-अयमेतद्रूप आध्यात्मिकः ५-" एवं खलु अहमासां द्वादशानां सपत्नीनां विघातेन नो शक्नोमि महाशतकेन श्रमणोपासकेन सार्द्धमुदारान् मानुष्यकान् भोगभोगान भुञ्जना विहर्तुम्,
हिरण्यभृतया सुवर्णादिपूर्णया ॥१३५॥ इसके अनन्तर महाशतक जीव-अजीवका जानकार श्रावक हो गया यावत् आत्माको व्रतसे भावित करता हुआ विचरने लगा ॥२३६॥ बाद श्रमण भगवान् महावीरभी यत्र-तत्र देशोमें विचरने लगे ॥२३७॥ तदनन्तर गाथापत्नी रेवतीको पूर्वरात्रिके अपर समय (उत्तरार्धभाग) में कुटुम्ब जागरणा जागती हुईको इस प्रकारका विचार आया-"इन बारह सोतों के विघात (विघ्न)के मारे महा शतक गाथापतिके साथ मैं मनमाने भोग नहीं भोग सकती हूँ, अतः अच्छा हो कि इन જાણકાર શ્રાવક થઈ ગયે યાવત્ આત્માને ભીવિત કરતે વિચરવા લાગે. (૨૩૬) પછી શ્રમણ ભગવાન્ મહાવીર પણ યત્ર-તત્ર દેશોમાં વિચરવા લાગ્યા. (૨૩૭) ત્યારબાદ ગાથાપત્ની રેવતીને પૂર્વરાત્રીના ઉત્તરાર્ધ ભાગમાં કુટુંબ જાગરણ જાગતાં એ પ્રકારને વિચાર થયે કે “આ બારે શેકના વિઘાત (વિન) ને લીધે મહાશતક ગાથા પતિની સાથે હું મનમાન્યા ભેગ ભેગવી શકતી નથી, માટે એ બારે શોને
ઉપાસક દશાંગ સૂત્ર
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