Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 515
________________ उपासकदशाङ्गमन्त्र सद्धिं उरालाइं जाव भुंजमाणे नो विहरसि ? ॥२४६॥ तए णं से महासयए समणोवासए रेवईए गाहावइणीए एयमद्वं नो आढाइ नो परियाणाइ, अणाढायमाणे अपरियाणमाणे तुसिणीए धम्मज्झाणोवगए विहरइ ॥२४७॥ तए णं सा रेवई गाहावइणी महासययं समणोवासयं दोचंपि तच्चंपि एवं वयासी-हंभो! तं चेव भणइ । सोवि तहेव जाव अणोढायमाणे अपरियाणमाणे विहरइ वा? मोक्षेण वा ? यत्खलु त्वं मया सामुदारान् यावद् भुञ्जानो नो विहरसि ? ॥२४६॥ ततः खलु स महाशतकः श्रमणोपासको रेवत्या गाथापल्या एतमर्थ नो आद्रियते नो परिजानाति, अनाद्रियमाणोऽपरिजा स्तूष्णीको धर्मध्यानोपगतो विहरति ॥२४७॥ ततः खलु सा रेवती गाथापत्नी महाशतकं श्रमणोपासकं द्वितीयमाप तृतीयमप्येवमवादीत-हंभोः ! तदेव भणति । सोऽपि तथैव यावद् अनाद्रियमाणोऽपरिजानन् विहरति ॥२४८॥ ततः खलु सा रेवती गाथापत्नी हो ? तात्पर्य यह है-धर्म पुण्य आदि सुखके लिए ही किये जाते हैं, और विषयभोगसे बढकर दूसरा कोई सुख नहीं है, इसलिए इन झंझटोंको छोड़ो ओर मेरे साथ मनमाने भोग भोगो ॥२४६॥ महाशतक श्रावकने रेवती गाथापतिनीके इस कथनको न आदर दिया न परिज्ञान किया, अर्थात् इस तरफ ध्यान भी नहीं दिया, वह मौन रह कर धर्म-ध्यानमें लगा रहा ॥ २४७ ॥ तब गाथापतिनी रेवतीने महाशतक श्रावकसे दूसरी बार और तीसरी बार भी वही बात कही, किन्तु महाशतक तो उसकी बातको उसी प्रकार यावत् स्वीकार, तथा परिज्ञान न करके विचरने लगा ॥ २४८ ।। तब रेवती गाथापतिनी महाતમે મારી સાથે મનમાન્યા ભેગ કેમ ભેગવતા નથી ? તાત્પર્ય એ છે કે ધર્મ પુણ્ય આદિ સુખને માટે કરવામાં આવે છે, અને વિષય ભેગથી ઉંચું બીજું કોઈ સુખ नथी; माटे । माथा छ।31 सने भारी साथे मनमान्य लोग लगवा. (२४९). મહાશતક શ્રાવકે રેવતી ગાથાપતિનીના આ કથનને આદર ન આપ્યો, પરિજ્ઞાન ન કર્યું, અર્થાત તે તરફ ધ્યાન પણ આપ્યું નહિ, તે મૌન રહીને ધર્મધ્યાનમાં લાગી રહ્યો. (૨૪૭). એટલે ગાથા પતિની રેવતીએ મહાશતક શ્રાવકને બીજીવાર અને ત્રીજીવાર પણ એ જ વાત કહી, પરંતુ મહાશતક તે જ પ્રમાણે ઉપાસક દશાંગ સૂત્ર

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