Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 01 Sthanakvasi Author(s): Sudharmaswami, Hemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni Publisher: Atmagyan Pith View full book textPage 8
________________ प्रकाशकीय जैनधर्म दिवाकर स्व० आचार्य सम्राट श्री आत्मारामजी महाराज ने जिनवाणी की अपूर्व प्रभावना की थी। अर्द्धमागधी भाषागत जनशास्त्रों का हिन्दी अनुवाद और विस्तृत टीकाएँ लिखकर उन्होंने आगमों का अमृत जन-जन के लिए सुलभ बनाने का ऐतिहासिक कार्य सम्पन्न किया था। उन्हीं की प्रेरणा व मार्गदर्शन से स्थानकवासी श्रमण परम्परा के अनेक विद्वान् मुनियों ने आगमों का सरल-सुबोध हिन्दी भाषा में संपादन-प्रकाशन कर श्रुतज्ञान-दान का महान कार्य किया है। इसी परम्परा में संस्कृत-प्राकृत भाषा के मर्मज्ञ पंडितप्रवर श्री हेमचन्द्रजी महाराज ने श्री सूत्रकृतांग सूत्र का अनुवाद एवं विद्वत्तापूर्ण विवेचन प्रस्तुत किया है। इसका सम्पादन, पंडितश्री जी के सुयोग्य शिष्य नवयुग सुधारक भंडारी श्री पदमचन्द जी महाराज के विद्वान शिष्य प्रवचनभूषण श्री अमरमुनि जी महाराज ने किया है। भंडारी श्री पदमचन्दजी महाराज जिनधर्म की प्रभावना में सदा अग्रणी रहे हैं । स्थान-स्थान पर चिकित्सालय, विद्यालय, वाचनालय, पुस्तकालय तथा असहाय सहायता केन्द्र आदि की स्थापना में प्रबल प्रेरणा देकर आप मानव जाति की महान सेवा कर रहे हैं, साथ ही भगवान महावीर के उच्च सिद्धान्तों का सक्रिय सजीव प्रसार कर रहे हैं। आपश्री के सप्रयत्नों से सम्पूर्ण मानवता धन्य हो रही है । पंजाब विश्वविद्यालय में जैनविद्या की चेयर स्थापना में भी आपश्री का मार्गदर्शन व सहयोग प्रमुख रहा है। पंजाब के गाँव-गाँव में सच्चरित्र व सद्ज्ञान की ज्योति जलाने की आपकी भावना सफल हो रही है। प्रस्तुत सूत्र श्रीसूत्रकृतांग का संपादन व प्रकाशन भी आपश्री की प्रखर प्रेरणा का ही सुफल है । आपश्री की प्रेरणा से संपादन भी शीघ्र सम्पन्न हुआ और मुद्रण एवं प्रकाशन भी । हम आपके सदा आभारी रहेंगे। प्रवचनभूषण श्री अमरमुनि जी तटस्थ विचारक व लेखक मुनि श्री नेमीचन्द्र जी महाराज का भी अथक श्रम इस पुण्य कार्य में लगा है। वास्तव में संपादक द्वय की निष्ठा का ही यह सुपरिणाम है। संस्था आपकी सदा कृतज्ञ रहेगी। प्रवचनभूषण श्री अमरमुनि जी तटस्थ विचारक व लेखक मुनि श्री नेमीचन्द्र जी महाराज का भी अथक श्रम इस पुण्य कार्य में लगा है। वास्तव में संपादक द्वय की निष्ठा का ही यह सुपरिणाम है । संस्था आपकी सदा कृतज्ञ रहेगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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