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(७) उर्ध्व लोक
मेरु की चूलिका के ऊपर से उत्तम भोगभूमिज मनुष्य के एक बाल के अन्तर से ऊर्ध्व लोक प्रारम्भ होता है। मध्य लोक में १ लाख ४० योजन ऊँचे सुमेरु प्रमाण है और चूलिका से प्रथम स्वर्ग में १ बाल का अन्तर है एवं लोक शिखर से १५७५ धनुष प्रमाण तनुवातवलय, १ कोस प्रमाण घनवातवलय, २ कोस घनोदधिवातवलय, ८ योजन सिद्धशिला और १२ योजन नीचे सर्वार्थसिद्धि का विमान है।
अतः ऊर्ध्व लोक का प्रमाण सात राजू में से (१,००,०६१ योजन-४२५ धनुष + उत्तर कुरु क्षेत्रवर्ती मनुष्य का एक बाल बराबर) कम है।
ऊर्ध्व लोक के २ भेद हैं- कल्प और कल्पातीत । सोलह स्वर्गों को कल्प कहते हैं। नव ग्रैवेयिक. नव अनुदिश और पांच अनुत्तर विमान कल्पातीत में आते हैं। मोटे रूप से ६ राजू में कल्पवासी विमान हैं और १ राजू में कल्पातीत विमान है।
मेरु तल से ऊपर डेढ़ राजू में प्रथम युगल (सौधर्म, ईशान), इसके आगे डेढ़ राजू में द्वितीय युगल (सानत्कुमार, माहेन्द्र), इसके आगे छह युगलों में से प्रत्येक अर्ध-अर्ध राजू में (ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर), (लान्तव, कापिष्ठ), (शुक्र, महाशुक्र), (शतार, सहस्त्रार), (आनत. प्राणत), और (आरण, अच्युत) स्वर्ग हैं।
कोई आचार्य सौधर्म, ईशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म. लान्तव, महाशुक्र, सहस्त्रार, आनत,प्राणत, आरण और अच्युत, इस प्रकार ये बारह कल्प मानते हैं।
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