Book Title: Acharya Hemchandra
Author(s): V B Musalgaonkar
Publisher: Madhyapradesh Hindi Granth Academy

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Page 73
________________ हेमचन्द्र के काव्य-ग्रन्थ और भक्ति का इतना सुन्दर समन्वय इस काव्य में हुआ है कि यह दर्शन तथा काव्य कला दोनों ही दृष्टि से उत्कृष्ट कहा जा सकता है । अन्ययोगव्यवच्छेद द्वात्रिशिका- इसमें मुख्यतः परपक्षदूषण ही बत ये गये हैं। प्रथम तीन श्लोकों में केवल ज्ञानी भगवान् की स्तुति करके उनके ४ अतिशय बतलाये हैं- (१) ज्ञानातिशय (२) अपायागमातिशय (३) वचनातिशय और (४) पूजातिशय । इसमें ज्ञान के साथ चरित्र का भी महत्व बतलाया गया है। "सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः" बतलाकर आचार्य ने यथार्थवाद को प्रतिष्ठित किया है। जैन दर्शन अनन्त रूपों से सत्य का दर्शन कराता हुआ यथार्थवाद पर प्रतिष्ठित है । इसके श्लोक ४ से ६ तक वैशेषिक दर्शन की आलोचना की गई है। सामान्य विशेष का सिद्धान्त प्रतिपादित कर एक ही सत्य के भिन्न-भिन्न अस्वथा स्वरूप बताये हैं । इस जगत का कोई कर्ता है, वह एक है, सर्वव्यापी है, स्वतन्त्र है, नित्य है-जिन नैयायिको की इस प्रकार की दुराग्रहरूपी विडम्बनाए हैं, हे जिनेन्द्र ! तुम उनके उपदेशक नहीं हो । नित्य-अनित्य स्याद् वाद के ही रूप हैं। इस प्रकार हेमचन्द्र के मत से वैशेषिक दर्शन में भी अनेकान्तवाद स्थित है। चित्ररूप भी एक रूप का ही प्रकार है । ईश्वर शासक भले ही हो सकता है, किन्तु निर्माता नहीं। हेमचन्द्र ने समवायवत्ति की आलोचना की और सत्ता, चैतन्य एवं आत्मन् का भी खण्डन किया है । उन्होंने विभुत्व की भी आलोचना की है। उनके अनुसार आत्मा सावयव और परिणामी है, वह समय पर बदलती रहती है । १० वें श्लोक में न्याय दर्शन की आलोचना है, श्लोक ११ तथा १२ में पूर्व मीमांसा की कड़ी आलोचना है । कर्मकाण्ड के __"The former (अन्ययोगव्यवच्छेद) is a genuine devotional lyric, pulsating with reverence for the Master and is at the same time a revient of some of the tenets of the rival schools on which the Jaina sees reason to differ. Devotion and thought are happiy blended together in one whole and are expressed in such noble and dignified language that it deserves to rank as a piece of Literature no less than that of philosophy." P. C. XX IV FATCAT - मञ्जरी टीका of अन्ययागव्यवच्छेद Published by Bombay Sanskrit and Prakrit Series No XXXIII in 1933 edited by आनन्द शंकर ध्रुव ।

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