Book Title: Acharya Hemchandra
Author(s): V B Musalgaonkar
Publisher: Madhyapradesh Hindi Granth Academy

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Page 195
________________ चन्द्र की बहुमुखी प्रतिभा १८३ इसी प्रकार हम देखते हैं कि अपभ्रंश व्याकरण में आये हुवे उद्धरणों में शृङगार, वीर आदि तथा अन्य रसों का संयोग हैं । कहीं नीति-सम्बन्धी उक्तियां हैं, कहीं धार्मिक सूक्तियाँ या अन्योक्तियाँ है । इन उद्धरणों में अनेक प्रकार के छन्द, रासक, रड्डा, दोहा, गाहा आदि दोहा प्रमुख हैं । उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति, विभावना, हेतु, अर्थान्तरन्यास आदि अनेक अलङ्कार भी हैं जो काव्यात्मकता को और भी बढ़ा देते हैं । जैनाचार्य हेमचन्द्र ने बहुत ही सूझ-बूझ से इनका सङ्ग्रह किया है । भाषा ही नहीं साहित्यिक प्रवृत्तियों को समझने के लिये भी इनका अध्ययन आवश्यक है । हेमचन्द्र के अपभ्रंश व्याकरण में उद्धृत अनेक पद्य उनके पूर्ववर्ती जोइन्द्र, रामसिंह, भोजराज, चण्ड, भट्ट नारायण, वाक्पतिराज, तथा अज्ञात लेखक की रचनाओं में क्रमशः परमाप्पपयास्, पाहुडदोहा, सरस्वतीकण्ठाभरण, प्राकृत लक्षण, वेणीसंहार, गउडवहो और शुक सप्तति से लिये गये हैं । न्यूनाधिक परिवर्तन के साथ सम्भव है, हेमचन्द्र द्वारा उद्धृत पद्यों में हेमचन्द्र के अपने भी दोहे या पद्य हों । कुछ अपभ्रंश पद्य छन्दोऽनुशासन में भी मिलते हैं । यहाँ इन सुन्दर साहित्यिक दोहों में सरसता के साथ-साथ लौकिकजीवन और ग्राम्यजीवन के भी दर्शन हमें होते हैं । 1 भाषा - विज्ञान की दृष्टि से हेमचन्द्र के साहित्य का मूल्याङ्कन : भारत में आर्य भाषाओं का विकास मुख्यतया तीन स्तरों में विभाजित पाया जाता है । पहले स्तर की भाषा का स्वरूप वेदों, ब्राह्मणों, उपनिषदों, द्वितीय का सूत्र-ग्रन्थों और तृतीय का रामायण, महाभारतादि पुराणो तथा काव्यों में पाया जाता है । ईसापूर्व छठी शती में महावीर और बुद्ध द्वारा उन भाषाओं को अपनाया गया जो उस समय पूर्व भारत की लोक भाषाएँ थीं और जिनका स्वरूप हमें पालि त्रिपिटक एवं अर्धमागधी जैनागम में दिखायी देता है । तत्पश्चात् जो शौरसेनी एवं महाराष्ट्री रचनाएँ मिलती हैं, उनकी भाषा को मध्ययुग द्वितीय स्तर की माना गया है, जिसका विकास ईसा की दूसरी शती से पाँचवी शती तक हुआ । मध्ययुग के तीसरे स्तर को अपभ्रंश का नाम दिया गया है । हेमचन्द्र के अपभ्र ंश में अनेक प्रकार की भाषाओं का समावेश है । ध्रु ( ८-४-३६०), तु ध्र ( ३७२), प्रस्सदि ( ३९३), ब्रोप्पिणु, ब्रोऽप्पि (३६१), गृहन्तिगृहेप्पणु (३४१, ३६४, ४३८) और वासु, (३६६), जो कभी 'र' और कभी 'ऋ' से लिखे जाते हैं - ये दूसरी बोलियों के शब्द हैं, हेमचन्द्र ने इनके

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